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वर्तमान बजट में उच्च शिक्षा की अवमानना हुई है। जैसी उम्मीद बनी थी कि पिछले बजट की तुलना में 2013-14 में बुनियादी बदलाव और अनुदान बढ़ाया जाएगा, वैसा नहीं हुआ। इस बार बजट की झोली से महज 65,867 करोड़ रुपये शिक्षा के पाले में गिरे, जिसका एक तिहाई हिस्सा उच्च शिक्षा के लिए आवंटित किया गया। पिछले दिनों राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री दोनों ने ही उच्च शिक्षा की निरंतर गिरती साख पर बेचैनी बयां की थी। उच्च शिक्षा में नामांकन के मामले में भारत दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा देश है। उच्च शिक्षा संस्थानों सबसे ज्यादा हमारे देश में हैं। एक सर्वेक्षण के मुताबिक उच्च शिक्षा संस्थानों में वेतनमान की श्रेणी में भारत का स्थान चौथे पायदान पर- ब्राजील, चीन और कई यूरोपीय देशों से भी बेहतर है।
इतना सब होने के बाद भी भारत की उच्च शिक्षा की स्थिति निरंतर चिंतनीय क्यों है? जमीनी स्तर पर जांच-पडताल करने पर कई कारण दिखाई देंगे। शिक्षा का मूल मकसद है समाज को प्रबुद्ध बनाना, विकास की ऊंचाइयों पर बने रहना, अंधविश्वास को दफन करना और लोकतांत्रिक मूल्यों की स्थापना करना। राष्ट्रपति ने 40 केंद्रीय विश्वविद्यालयों के कुलपतियों को संबोधित करते हुए कुछ ऐसा ही संदेश दिया था। सच्चाई यह है कि ऐसे संदेश महज कागजी घोड़े बनकर लाल पट्टी लगाए राष्ट्रपति भवन से राज्य सरकार के सचिवालयों तक तो खूब दौड़ते है, लेकिन यह दौड़ कभी जमीनी सच्चाई नहीं बन पाती। यही कारण है कि आजादी के बाद से गठित दर्जनों समितियों की संस्तुतियां हवाई बनकर रह गईं। आज उच्च शिक्षा संस्थान सामाजिक बदलाव के हक में काम नहीं करते। बदलाव में सामाजिक निष्ठा कम राजनीतिक समीकरण ज्यादा होते हैं। वोट बैंक की राजनीति होती है। दरअसल, शिक्षा के बेतरतीब ढांचे को देखें तो उसमें कई विसंगतियां नजर आती हैं। यह ढांचा कभी राजनीतिक विचारधारा की दरार में फंस जाता है तो कभी क्षेत्रवाद और कभी जातीय उधेड़बुन में। पिछलें दिनों बिहार के मुख्यमंत्री ने कुलपति की नियुक्ति पर कुछ ऐसी ही बातें कही थी। राज्य सरकार का काम महज उच्च शिक्षण संस्थानों के लिए अनुदान देना भर नहीं है, बल्कि नियंत्रण और मुआयना करना भी है। हमारे देश में आज 33 हजार से ज्यादा महाविद्यालय और 634 विश्वविद्यालय हैं। इसके अलावा 100 से अधिक निजी और मानित विश्वविद्यालय हैं। एक विश्वविद्यालय के आंचल में सौकड़ों कॉलेज कीट पतंगों की भांति झूलते रहते है। इन पर नियंत्रण दिखावटी होता है और ये डिग्री बांटने की फैक्ट्री में तब्दील हो जाते हैं। शिक्षा का मूल अर्थ समाज को बेहतर बनाना है। उच्च शिक्षा संस्थान इस परिधि के अतिरेक नहीं हैं। जरूरत प्राथमिकी से लेकर विश्वविद्यालय तक शिक्षण संस्थानों को सक्रिय घटक के रूप में काम करने की है। नीति -निर्माताओं का यह कहना कि ऐसा होना संभव नहीं है गलत होगा। इस मामले में कुलपति मूलचन्द शर्मा की अगुआई में हरियाणा के केंद्रीय विश्र्वविद्यालय को मिसाल के तौर पर लिया जा सकता है। इस विश्वविद्यालय ने कुछ ऐसे नायाब प्रयोग किए हैं, जो उच्च शिक्षण संस्थानों के लिए मानक बन सकते हैं। प्राथमिकी से विश्वविद्यालय तक की मजबूत कड़ी बनाई गई।
समाज की तीन महत्वपूर्ण समस्याओं को रेखांकित किया गया। मद्यापान, भू्रण हत्या और महिलाओं के खिलाफ अपराध। माध्यमिक विद्यालयों की शिक्षिकाओं ने पाया कि बच्चे शराब पीकर स्कूल आते हैं। शिकायत के लिए गईं तो पिता पहले से नशे में। कई परिवार इस मकड़जाल में फंसे हैं। कोई भी उच्च शिक्षण संस्थान सामाजिक बुराइयों से मुंह फेरते हुए सिर्फ रैंकिंग की दौड़ में लगा रहे तो वह वहीं असफल हो जाता है। 12वीं पंचवर्षीय योजना को शिक्षा योजना कहकर पुकारा जा रहा है। 11वीं योजना के तहत अनुसूचित जनजाति का प्रतिशत उच्च शिक्षण संस्थान में महज 7.6 तक ही है, जबकि राष्ट्रीय आंकड़ा 16 प्रतिशत के करीब है। अब सरकार उच्च शिक्षा में निजीकरण बढ़ाना चाहती है। सरकार की नीति बबूल के पेड़ पर आम उपजाने की है। आज भी निजी उच्च शिक्षण संस्थाएं 58.9 प्रतिशत हैं। खुदगर्ज व्यवसायिक संस्थाओं के मातहत सामाजिक बदलाव की अलख नहीं जगाई जा सकती। शिक्षा के अधिकार के तहत पिछडे़ तबकों के बच्चों को 25 फीसद आरक्षण पर निजी स्कूलों की मंशा आम जनता देख चुकी है। उच्च शिक्षा में यह प्रवृत्ति कभी नहीं आ सकती। उच्च शिक्षा की अन्य महत्वपूर्ण समस्याएं गुणवत्ता शोध को लेकर है। आंकड़े बताते हैं कि भारत में स्कूली शिक्षा के बाद बमुश्किल 38 फीसद बच्चे कॉलेज तक पहुंच पाते हैं। उनमें से 8 प्रतिशत ही स्नातकोत्तर तक जा पाते हैं। अंतत: शोध के लिए मुश्किल से एक प्रतिशत से भी कम छात्रों का पंजीकरण होता है। देश में आज भी शोध को शिक्षा का मूलभूत अंग नहीं माना जाता। माना जाता है कि शोध निजी व्यक्ति का काम है। इससे संस्था मजबूत नहीं होती, जबकि ज्ञान की धारा वहीं से निकलती है। ज्ञान आयोग बनाया ही उच्च शिक्षा की गिरती साख को दुरुस्त करने के लिए गया था, लेकिन लालफीताशाही ने इसे भी खत्म कर दिया। अमेरिका अपनी तकनीकी क्षमता की बदौलत दुनिया का सबसे शक्तिशाली देश बना हुआ है। यह सब विभिन्न संकायों में चल रहे निरंतर शोध से संभव हो पाया है। वहां कुल शोधार्थियों में 38 प्रतिशत भारतीय मूल के हैं। शोध की उत्कृष्ट व्यवस्था के अभाव में हर वर्ष हजारों भारतीय छात्र पलायन करते हैं। पिछले वर्ष अमेरिकी पत्रिका टाइम ने 200 उत्कृष्ट संस्थाओं की सूची जारी की थी। उसमें भारत के किसी भी उच्च संस्थान का नाम नहीं था। इस पर नीति-निर्माताओं ने दिखावटी खेद जताया था। राष्ट्रपति ने दर्द भरे शब्दों में संदेश दिया कि उच्च शिक्षा में आमूलचूल बदलाव की जरूरत है। प्रश्न फिर वहीं आकर रुक जाता है। कैसे? क्या यह देश शिक्षा के लिए कोई नया मॉडल अपनाने के लिए तैयार है? ऐसा मॉडल जो प्राथमिकी से लेकर विश्वविद्यालय तक की शिक्षा को एक सूत्र में पिरोए और सामाजिक न्याय के बीच रोपे। सामाजिक न्याय केवल आंकड़ों के बढ़ाने से नहीं होगा। अगर विस्तार गुणवत्ता के साथ नहीं हुआ तो विकास की धार कुंद पड़ जाएगी। जरूरी नहीं कि भारत के धनाड्य हो जाने से उच्च शिक्षा का स्तर सुधर जाएगा। इसका कारण यह है कि वर्ग भेद सामाजिक और आर्थिक विसंगतियों के कारण पैदा हुआ है। अगर सिर्फ धन से किसी देश का शिक्षा स्तर ऊपर हो पाता तो अरब देश आज इस मामले में अग्रिम पंक्ति में खड़े होते। उच्च शिक्षण संस्थाओं के मूल मकसद को नए सिरे से पहचानने की कोशिश करनी होगी। शिक्षा के प्राथमिक उद्देश्य से भटककर न तो उस संस्था का भला होगा और न ही देश का। जरूरत उच्च शिक्षा में परंपरा और आधुनिकता के बीच संतुलन बनाए रखने की भी है। ऐसा न हो कि आधुनिकता की बैचेनी में शिक्षा पथ से भटक जाए। शिक्षा के संदर्भ में भारत का मॉडल अपना होगा, क्योंकि यहां का समाज और उसकी समस्याएं तथा परिस्थितियां भी अलग हैं।
इस आलेख के लेखक सतीश कुमार हैं
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