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सिविल सेवा परीक्षा में बदलाव की प्रासंगिकता

जागरण मेहमान कोना
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abhishek ranjanसंघ लोक सेवा आयोग ने सिविल सर्विस की वर्ष 2013 की परीक्षा की अधिसूचना पाठ्यक्रम के बदलाव के साथ जारी कर दी। वैसे तो सिविल सर्विसेज की तैयारी कर रहे छात्रों को सिलेबस में व्यापक बदलाव की संभावना पहले से ही थी, लेकिन मुख्य परीक्षा में बतौर एक पेपर हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं की अनिवार्यता खत्म कर दी जाएगी, ऐसा किसी ने सोचा भी नहीं था। हालांकि संघ लोक सेवा आयोग समय-समय पर अपने पाठ्यक्रमों में फेरबदल करता रहा है, लेकिन पिछले कुछ सालों से यूपीएससी का रवैया हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के छात्रों को निराश करने वाला है। ऐसे में नौकरशाह बनने का सपना संजोए हिंदी माध्यम के प्रतियोगी छात्रों की राह पहले के मुकाबले और ज्यादा कठिन हो गई है। संघ लोक सेवा आयोग ने सिविल सर्विस की मुख्य परीक्षा के पैटर्न में जो परिवर्तन किए हैं, उसका बुरा असर गैर-अंग्रेजी माध्यम के अभ्यर्थियों पर भारी पड़ने वाला है।


आयोग के इस फैसले ने बेशक कोचिंग संस्थानों की खुशियां दोगुनी कर दी हैं, क्योंकि अब न केवल सिविल सेवा की मुख्य परीक्षा में अंग्रेजी का महत्व और उसकी अनिवार्यता बढ़ी है, बल्कि सामान्य अध्ययन का दायरा भी व्यापक हो गया है। अगर देखा जाए तो हिंदी और क्षेत्रीय भाषाओं में अध्ययन करने वाले छात्रों में मायूसी सामान्य अध्ययन या दूसरे बदलावों के कारण नहीं है। उनकी चिंता का सबसे बड़ा कारण है मुख्य परीक्षा में अंग्रेजी के पेपर को अनिवार्य बनाना और हिंदी व अन्य भारतीय भाषाओं की अनिवार्यता को खत्म करना। बता दें कि वर्ष 2011 में सिविल सेवा की प्रारंभिक परीक्षा में एप्टीट्यूड टेस्ट यानी सी-सैट लागू होने के बाद हिंदी माध्यम के अभ्यर्थियों की सफलता दर काफी घट गई है। इस परीक्षा के आंकड़ों पर गौर करें तो वर्ष 2010 के मुकाबले मुख्य परीक्षा में हिंदी माध्यम के अभ्यर्थियों की हिस्सेदारी 60 फीसद से भी ज्यादा घटी है। बात अगर ग्रामीण क्षेत्र के अभ्यर्थियों की करें तो 2009 में जहां सफल अभ्यर्थियों में इनका हिस्सा 48.28 प्रतिशत था, वहीं 2011 में यह घटकर 29.55 प्रतिशत हो गया है। मुख्य परीक्षा में निबंध के 200 अंकों के प्रश्न-पत्र के साथ ही अंग्रेजी और किसी एक अन्य भारतीय भाषा का पेपर होता था। भाषा की परीक्षा में सिर्फ पास करना जरूरी होता था और उनके अंक मेरिट में नहीं जोड़े जाते थे। हालांकि बदले प्रारूप में अब 200 अंकों के निबंध के साथ 100 अंकों का अंग्रेजी कॉम्प्रीहेंशन का पेपर भी होगा। अंग्रेजी के ये नंबर अब मेरिट का हिस्सा होंगे। सिविल सेवा परीक्षा के नए बदलावों के अनुसार, साहित्य या भाषा को ऐच्छिक विषय के रूप में केवल वही अभ्यर्थी चुन सकता, जिसने उस भाषा या साहित्य को मुख्य विषय रखते हुए स्नातक की परीक्षा उतीर्ण किया हो। यूपीएससी का यह फैसला भी समझ से परे है।


देश में नौकरशाह तैयार करने वाला संघ लोक सेवा आयोग इस बात को क्यों नहीं समझना चाहता है कि उसके दो तिहाई से अधिक नौकरशाह बतौर जिलाधिकारी, पुलिस अधीक्षक और प्रमंडलीय आयुक्त जैसे पदों पर देश के सुदूरवर्ती इलाकों में कार्य कर रहे होते हैं। वहां अंग्रेजी दूसरे ग्रह की भाषा सरीखी होती है। फर्ज करें, गढ़चिरौली, रायगढ़, अमरावती, किशनगंज, खगडि़या, उदयपुर, होशियारपुर और कोकराझार जिले में तैनात एसपी और डीएम, जो अमूमन अंग्रेजी भाषा के अच्छे जानकार तो हैं, लेकिन हिंदी या अन्य भारतीय भाषा में संवाद स्थापित करने में वे असमर्थ हैं। ऐसी दशा में स्थानीय जनता की परेशानी बढ़ना स्वाभाविक है। मिसाल के तौर पर किसी जिले में भूमि अधिग्रहण का मामला चल रहा हो और ग्राम सभा की बैठक में अधिकारी अंग्रेजी में लिखे गए भूमि अधिग्रहण कानून से जुड़े दस्तावेज प्रस्तुत करते हैं और ग्रामीणों को समझाते हैं कि इससे आपको काफी फायदा होने वाला है। इस मामले में पूर्व नौकरशाह रहे कांग्रेस के वरिष्ठ नेता मणिशंकर अय्यर की वह बातें याद आ रही हैं, जिसमें उन्होंने कहा था कि बतौर पंचायती राज मंत्री एक बार वह ओडिशा के ग्रामीण इलाकों का दौरा कर रहे थे। संबंधित जिले के जिलाधिकारी और मंडलायुक्त को उन्होंने ग्रामीण विकास से जुड़ी फाइलें दिखाने को कहा। वहां सभी महत्वपूर्ण दस्तावेज अंग्रेजी में लिखे हुए थे और उस गांव में एक भी आदमी अंग्रेजी नहीं जानता था। अधिकारी अपनी बात कहते गए, लेकिन ग्रामीणों को उनकी एक बात भी समझ में नहीं आई, क्योंकि उनकी सारी बातें अंग्रेजी से शुरू हुई और अंग्रेजी में ही खत्म हो गई। असल में यह एक तरीका है देश की नौकरशाही का, जो अंग्रेजी में लिखते हैं और वही चीज जनता के ऊपर थोपना चाहते हैं। देश की नौकरशाही पर इस भाषा का तिलिस्म इस कदर व्याप्त हो गया है कि अगर कोई शख्स हिंदी या अन्य क्षेत्रीय भाषा में सूचना के अधिकार कानून के तहत किसी मंत्रालय से जानकारी मांगता है तो उसका अधिकांश जवाब अंग्रेजी में ही होता है। देश की एक बड़ी आबादी गांवों में निवास करती है, जो हिंदी या अन्य भारतीय भाषा ही बोलते और समझते हैं। लेकिन जब देश का आम बजट पेश होता है, तब संसद में वित्त मंत्री अंग्रेजी में बजट भाषण पढ़ रहे होते हैं। देश की वह जनता, जो किसानी और मजदूरी पर निर्भर है, वह जब रेडियो या टेलीविजन पर यह सुनती और देखती है, उसे कितनी तकलीफ होती होगी, इसका अंदाजा हमारी सरकार को होना चाहिए।


सिविल सर्विस की मुख्य परीक्षा में हिंदी और भारतीय भाषा के पेपर में पास करने की अनिवार्यता खत्म करके यूपीएससी ने यह साबित कर दिया है कि दिल्ली के शाहजहां रोड स्थित उसके कार्यालय समेत पूरे देश में अंग्रेजीदां नौकरशाहों को बहाल किया जाएगा। आगामी कुछ सालों में हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं में सिविल सेवा की तैयारी कर रहे लाखों छात्रों पर आयोग का कहर बरपेगा, इससे इन्कार नहीं किया जा सकता। इसी तरह अगर हम देश की न्यायपालिका की बात करें और इक्के-दुक्के फैसलों को अगर छोड़ दें तो उच्च न्यायालयों और उच्चतम न्यायालय के सभी फैसले भी अंग्रेजी में ही लिखे जाते हैं। न्यायपालिका की यह व्यवस्था उन करोड़ों लोगों को निराश करने वाली है, जो अंग्रेजी नहीं जानते हैं। संघ लोक सेवा आयोग की ओर से पाठ्यक्रमों में किए गए इस अन्यायपूर्ण बदलाव पर शिवसेना को छोड़कर सभी राजनीतिक पार्टियां खामोश हैं। यहां तक कि हिंदी का राग अलापने वाले और ख़ुद को डॉक्टर लोहिया और जयप्रकाश नारायण का अनुयायी बताने वाले मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार भी चुप हैं। इस मुद्दे पर मायावती, ममता बनर्जी, करुणानिधि और जयललिता भी शांत हैं। उनकी इस खामोशी का क्या अर्थ निकाला जाए? संसद भवन में गैर हिंदीभाषी राज्य मसलन, असम, मेघालय, मणिपुर, अरुणाचल प्रदेश और सिक्किम के कुछ सांसद जब हिंदी में अपनी बात कहते हैं तो काफी खुशी होती है। गैर हिंदीभाषी नेताओं का यह हिंदी प्रेम हमें समाजवादी चिंतक डॉ. राममनोहर लोहिया की वजह से देखने को मिल रहा है। डॉक्टर राम मनोहर लोहिया ने हमेशा देश की नौकरशाही में अंग्रेजी के बढ़ते वर्चस्व की मुखालफत की। उनका स्पष्ट मानना था कि देश की आबादी का बड़ा हिस्सा ग्रामीण इलाकों से जुड़ा है। उसकी भाषा अंग्रेजी नहीं है। अत: ग्रामीण जब भी अपने अधिकारियों के समक्ष अपनी समस्याएं लेकर जाते हैं तो उनके चेहरे पर पसीनों के साथ-साथ उनकी अपनी जुबान होती है। ऐसे में अगर कोई अधिकारी उसे यह कहकर अपने दफ्तर से बाहर कर दे कि उसके शरीर से बदबू आ रही है और वह जाहिलों की जुबान बोल रहा है, जैसा कि यूपीएसपी भी मान रही है तो यह शर्मनाक है।


इस आलेख के लेखक अभिषेक रंजन सिंह हैं


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