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नीतीश की इस हुंकार के मायने

जागरण मेहमान कोना
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बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने दिल्ली के रामलीला मैदान से अधिकार रैली के जरिये न केवल अपने राज्य के अधिकारों की मांग की, बल्कि दिल्ली में भी अपना राजनीतिक दमखम दिखा दिया। नीतीश बिहार को विशेष राज्य का दर्जा देने की मांग लंबे समय से केंद्र सरकार के सामने करते रहे हैं। हालांकि केंद्र सरकार विशेष राज्य के मानदंड पर बिहार के खरा नहीं उतरने के कारण उसकी मांगों को खारिज करती रही है, लेकिन इसमें एक नया मोड़ तब आया, जब केंद्रीय वित्त मंत्री पी चिदंबरम ने अपने 2013-14 के बजट भाषण में विशेष राज्य का दर्जा देने के मानदंडों में परिवर्तन करने जिक्र किया। नीतीश ने भी लगे हाथ इसके लिए वित्त मंत्री को बधाई दी थी। इसे भी दोनों के बदले तेवर की एक कड़ी माना जा रहा है। लेकिन मुख्यमंत्री बनने के बाद बिहार तक सीमित रह गए नीतीश ने पहली बार इस विराट रूप में राष्ट्रीय स्तर पर दस्तक दी।

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वर्ष 2014 के आम चुनाव को देखते हुए इसके भी राजनीतिक निहितार्थ हैं। माना जा रहा है कि विशेष राज्य का दर्जा महज एक बहाना है। इस रैली को आयोजित करने के पीछे नीतीश कुमार का असली मकसद कुछ और है। हालांकि कई लोग इसे नीतीश कुमार के शक्ति प्रदर्शन के तौर पर देख रहे हैं। संभवत: यह पहला मौका था, जब कोई राज्य अपने अधिकारों की मांग के लिए केंद्र सरकार पर इस प्रकार का जन-दबाव बनाया। दरअसल, इस तरह की मांग करके नीतीश कुमार अपनी राजनीतिक जड़ें मजबूत करने की कोशिश में हैं। उन्हें यह बात अच्छी तरह से मालूम है कि बिहार से बाहर के राज्यों के राजनेता भी इस मामले में उनका विरोध इसलिए नहीं करेंगे, क्योंकि वोट की राजनीति भला कौन नहीं करना चाहता। खैर, रामलीला मैदान से विकासशील बिहार का जिक्र तो रैली में हुआ ही, बात देश के विकास तक की भी की गई। नीतीश ने कहा कि आज बिहार के हालात ये हैं कि सूबा सड़क, बिजली, मानव विकास सूचकांक में काफी पीछे है। हर मामले में बिहार बहुत पीछे हैं। क्या हमारा हक नहीं बनता है कि हम भी विकसित बने? नीतीश ने कहा कि यह केवल बिहार की नहीं, सभी पिछड़े राज्यों की लड़ाई है। उन्होंने कहा कि भारत और इंडिया का विभाजन हमें कतई मंजूर नहीं है।


हमें एक हिंदुस्तान चाहिए। अधिकार रैली के जरिये 2014 के लोकसभा चुनाव के लिए कांग्रेस को साफ संकेत दे दिया गया है। वित्त मंत्री ने बजट भाषण में विशेष राज्य के दर्जे के मापदंड बदलने के संकेत देकर नीतीश को जो संकेत दिया था, नीतीश ने इशारों-इशारों में उसका जवाब दे दिया। उन्होंने कहा कि बिहार को विशेष राज्य का दर्जा देकर केंद्र सरकार को यह साबित करना होगा कि आवाज दिल से निकली है या नहीं। उन्होंने कहा, अभी नहीं तो 2014 में विशेष राज्य का दर्जा देना ही होगा। दिल्ली में वही बैठेगा, जो विशेष राज्य का दर्जा देगा। जाहिर है, नीतीश ने साफ संकेत दे दिया है कि विशेष राज्य का दर्जा देने पर वह संप्रग का साथ दे सकते हैं। एक बात बता दें कि बिहार में सतारूढ़ जनता दल (यूनाइटेड) ने राष्ट्रपति के चुनाव में संप्रग के उम्मीदवार प्रणब मुखर्जी को समर्थन दिया था। तभी से बिहार की राजनीति में जदयू की कांग्रेस से निकटता को लेकर सवाल उठने लगे थे। हाल ही में नीतीश कुमार ने एलान किया कि वे उन्हीं दलों का साथ देंगे, जो विशेष राज्य का दर्जा दिलवाने में बिहार का साथ देंगे। नीतीश के इस बयान के बाद सियासी माहौल गरमा गया था। काफी दिनों से बिहार तक सीमित रहने वाले नीतीश की दिल्ली में हुई इस रैली के कई सियासी मायने हैं। बिहार को विशेष राज्य का दर्जा दिए जाने की नीतीश की मांग का वित्त मंत्री पी चिदंबरम ने अपने बजट भाषण में समर्थन किया था। इसे कांग्रेस और नीतीश के बीच दूरियां कम करने की कोशिश के तौर पर भी देखा गया, जबकि पिछले कुछ महीनों में भाजपा और जदयू के आपसी रिश्ते कई बार बने-बिगड़े हैं। ऐसे में नीतीश के एकला चलो की नीति से भाजपा खुद को ठगा महसूस कर रही है। यह बात और है कि दिल की बात जुबां तक लाना नहीं चाहती। बता दें कि भाजपा में नरेंद्र मोदी के बढ़ते कद से वैसे भी नीतीश खुश नहीं हैं और कांग्रेस उन्हें अपने पाले में मिलाने के कई संकेत दे चुकी है। साथ ही कांग्रेस की नजर नीतीश के बढ़ते कद पर भी है, जिसका नुकसान भाजपा या मोदी को उठाना पड़ सकता है। नीतीश और गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की दूरी अब किसी से छिपी नहीं है। यहीं वजह है कि जदयू ने अगला आम चुनाव अकेले लड़ने के संकेत दे दिए हैं। जदयू ने कहा है कि अगर परिस्थिति की मांग रही और उनके भाजपा से रिश्ते टूटे तो पार्टी अगला आम चुनाव अकेले लड़ने के लिए तैयार है। हालांकि नीतीश कुमार पहले ही उस पार्टी का साथ देने का फैसला कर चुके हैं, जो बिहार को विशेष राज्य का दर्जा दिलाएगी। ऐसे में अगर केंद्र की कांग्रेस सरकार बिहार को विशेष राज्य का दर्जा दे देती है तो 2014 के लोकसभा चुनावों के समीकरण बदल सकते हैं। बता दें कि विशेष राज्य का दर्जा दिए जाने को लेकर बिहार विधानसभा ने वर्ष 2006 में ही सर्वसम्मति से प्रस्ताव पारित किया था और वर्ष 2010 में बिहार विधान परिषद ने भी इसे लेकर प्रस्ताव पारित किया था। बहरहाल, नीतीश ने बिहार के लिए अपने अंदाज में विशेष दर्जे की मांग कर अन्य राज्यों को भी नया आइडिया दे दिया है। ऐसे मे भविष्य में उनके साथ ओडिशा और पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री भी खड़े हो सकते हैं, जो अपने राज्यों के लिए भी ऐसी मांग करते रहे हैं। वैसे यह बात छिपी नहीं है कि मौजूदा शर्तो या मापदंडों के रहते बिहार या अन्य पिछड़े राज्यों को स्पेशल कैटेगरी में रखना संभव नहीं होगा। इसके लिए मापदंड बदलना भी आसान नहीं है, क्योंकि तब अनेक राज्यों से ऐसी मांगें होंगी। केंद्र सरकार उन राज्यों को विशेष राज्य का दर्जा देती है, जिनके इलाके दुर्गम होते हैं। साथ ही प्रदेश का एक खास क्षेत्र अंतरराष्ट्रीय सीमा से लगा हो। वह क्षेत्र देश की सुरक्षा के लिहाज से बेहद संवेदनशील होता है। फिलहाल भारत में 28 राज्यों में से 11 राज्यों को विशेष राज्य का दर्जा मिला है। इसमें पूर्वोत्तर के लगभग सभी राज्य शामिल हैं। इन राज्यों को केंद्र सरकार की तरफ से मिलने वाले पैकेज में 90 फीसद रकम बतौर मदद मिलती है। इसमें 10 फीसद रकम ही बतौर कर्ज होती है। साथ ही इन राज्यों को उनके आर्थिक या औद्योगिक विकास के लिए कई टैक्सों में खास रियायतें मिलती हैं। केंद्र सरकार ने एक राजनीतिक रणनीति के तहत इस संदर्भ में शर्त संशोधन जैसी संभावना भले ही उछाल दी हो, लेकिन ऐसा हो पाना मुश्किल लगता है। अहम सवाल यह भी है कि केंद्र सरकार के स्पष्ट इन्कार के बावजूद नीतीश कुमार इसे ज्वलंत मुद्दा बनाए रखने की व्यग्रता क्यों दिखा रहे हैं? जाहिर है, यह सरकार अपने शासनकाल में बढ़ती ग़रीबी, भ्रष्टाचार और बिगड़ती कानून-व्यवस्था को छिपाने और केंद्र की नाइंसाफी पर शोर मचाने का बहाना ढूंढ़ती रही है। लिहाजा, घटती लोकप्रियता के बीच खुद को बिहार का इकलौता मसीहा बताना नीतीश कुमार की मजबूरी हो सकती है, लेकिन उनकी मांग पर अमल करना बिहार के विकास की गांरटी नहीं है। ऐसे में अब यह विशेष राज्य वाला बहाना नीतीश कुमार को सबसे कारगर लगता है, क्योंकि उनके लिए तो यह एक राजनीतिक सौदेबाजी का मुद्दा है। या यों कहें कि उनकी सोची-समझी राजनीतिक चाल है। इन तमाम बिंदुओं पर गौर करने से क्या यह निष्कर्ष नहीं निकलता कि एक मरी हुई उम्मीद पर अड़ी हुई सत्ता का वादा कुछ और है और इरादा कुछ और!

इस आलेख के लेखक रवि शंकर हैं


Tags: नीतीश, नीतीश कुमार, बिहार विधान परिषद, अंतरराष्ट्रीय सीमा, राजनीतिक चाल

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