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जल प्रबंधन की चुनौती

जागरण मेहमान कोना
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भारत की जल एवं विकास नीति पर यदि तर्कसंगत विचार किया जाए तो एक ही निष्कर्ष पर पहुंचेंगे कि यदि हमारा यही रुख-रवैया जारी रहा तो 2025 तक देश को भारी जल संकट का सामना करना पड़ेगा। हाल के वर्षो में देश में जल समस्या लगातार बढ़ती जा रही है। भारत की जल प्रबंधन नीतियां समय से कम से कम 25 साल पीछे चल रही हैं। बाढ़ और सूखे के कारण होने वाला आर्थिक नुकसान बढ़ा ही है। तमाम शहरी केंद्रों के आसपास के जलाशय बुरी तरह प्रदूषित हैं। भारत भले ही उभरती हुई आर्थिक महाशक्ति हो, लेकिन इसका जल प्रबंधन दशकों से कमजोर बना हुआ है। जल, खाद्य, ऊर्जा, पर्यावरण और गरीबी उन्मूलन नीतियों के आपस में जुड़े होने के बावजूद भारत ने कभी ऐसी जल नीति नहीं बनाई जिसमें दूसरे क्षेत्रों पर पड़ने वाले प्रभाव का ध्यान रखा गया हो। यह स्थिति तब है जब पानी लाखों-करोड़ों लोगों के जीवन को प्रभावित करता है। सच तो यह है कि देश को ऐसा कोई मंत्री नहीं मिला जो जल प्रबंधन की जटिलताओं को भली-भांति समझता हो। 1960 में डॉ. एल.के. राव के बाद ऐसा कोई मंत्री नहीं हुआ जो जल से संबंधित योजनाओं को निर्धारण करने और उनके क्रियान्वयन पर विशेष ध्यान रखने के प्रति गंभीर हो।


एक के बाद एक सरकारों ने सामाजिक-आर्थिक विकास के लिए पानी के महत्व पर बातें तो खूब कीं, लेकिन यथार्थ के धरातल पर काम नहीं किया। पहली बार मैंने नदियों को जोड़ने के बारे में 1965 में डॉ. राव से मुलाकात के दौरान सुना था। उन्होंने गंगा और कावेरी को जोड़ने की बात कही थी। इसलिए नदियों को जोड़ने का विचार नया नहीं है। हालांकि इसका क्रियान्वयन करने वाली सरकारी मशीनरी ऐसी किसी योजना पर कभी ठोस फैसला नहीं कर पाई। वर्ष 2002 में सुप्रीम कोर्ट ने नीतिगत शून्यता को भरने का काम किया था। इसके बाद एक टास्क फोर्स का गठन किया गया, इस जटिल मुद्दे पर राज्यों के बीच आम राय बनाने का काम शुरू किया। दुर्भाग्य से कुछ राजनीतिक हस्तियों ने इससे लोकप्रियता बटोरने की कोशिश की तो कुछ ने राजनीतिक लाभ लेने की, लेकिन न तो टास्क फोर्स और न ही उसके बाद की समितियों ने ऐसा काम किया जिससे परियोजना पर कुछ कठोर राजनीतिक निर्णय किए जा सकें। नदियों को जोड़ना मिथ्या है। जल हस्तांतरण अंतर-बेसिन होता है, अंतरराज्यीय नहीं। बेसिन की सीमाएं स्थायी होती हैं, लेकिन राज्य की सीमाएं समय के साथ बदल जाती हैं। राजनीतिक रूप से केंद्र में उसके गठबंधन दलों के बीच अंतर बेसिन जल हस्तांतरण पर कभी आम राय नहीं बन पाई। राज्यों के विचार अलग-अलग रहे हैं और कभी-कभी तो धुर विरोधी भी। इस पूरे मुद्दे पर ही कभी राजनीतिक सहमति नहीं बन पाई और निकट भविष्य में ऐसा होता दिखाई भी नहीं दे रहा है। इ बिखरे हुए राजनीतिक ढांचे और नौकरशाही सुस्ती के चलते सुप्रीम कोर्ट ने पिछले साल 27 फरवरी को एक बार फिर इस परियोजना की जरूरत की ओर ध्यान खींचा। तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश जस्टिस कपाडि़या की पीठ ने कहा था, यह राष्ट्रहित और प्रगति का मामला है। हमें कोई कारण दिखाई नहीं देता है कि कोई राज्य नदियों को आपस में जोड़ने की परियोजना में अपना योगदान देने से पीछे हटे। ऐसे काम में योगदान से हाथ खींचे जिससे सूखाग्रस्त इलाकों में लोगों को भूख से और बाढ़ग्रस्त क्षेत्रों के लोगों को विनाश से बचाया जा बचाया जा सकता है। अब यह तो समय ही बताएगा कि केंद्र और राज्यों में बिखरे राजनीतिक दल इस जटिल मुद्दे पर कभी कोई ठोस फैसला कर पाएंगे या नहीं। भविष्य में चाहे जो हो, पर देश को जल भंडार बनाना ही पड़ेगा, ताकि पानी की अच्छी गुणवत्ता और मात्रा विश्वसनीय आधार पर उपलब्ध हो सके, उच्च आर्थिक वृद्धि सुनिश्चित की जा सके, गरीबी उन्मूलन और लोगों की बढ़ती महत्वाकांक्षा पूरी की जा सकें। यदि ये उद्देश्य प्राप्त करने हैं तो भारत को दो दीर्घकालीन जल नीति अपनानी होंगी, जिनका मकसद फिलहाल मांग कम करना और आपूर्ति बढ़ाना होना चाहिए।


विडंबना यह है कि राज्य और केंद्र, दोनों के स्तर पर मांग के प्रबंधन की लगातार अनदेखी की जा रही है। इसका कारण हैं राजनीतिक गलतफहमियां, नौकरशाही और निष्कि्रय जल संस्थान। यदि देश को अच्छी गुणवत्ता वाले पानी की आपूर्ति का लक्ष्य हासिल करना है तो उसे मांग का प्रबंधन करना ही पड़ेगा। एक निर्विवाद तथ्य यह है कि मानसून पर निर्भर रहने वाले भारत जैसे देश में सालाना करीब 80 फीसद बारिश 90-120 घंटे होती है। इसलिए देश के सामने सबसे बड़ी चुनौती बेहद सीमित समय के भीतर होने वाली इस बारिश के पानी के भंडारण की है, ताकि साल भर उस पानी का इस्तेमाल किया जा सके। भारत को सिर्फ अपनी भंडारण क्षमताएं ही नहीं, बल्कि जल प्रबंधन की क्षमताएं भी बढ़ानी हैं। अमेरिका ने साल दर साल भारत की तुलना में ज्यादा बेहतर जल प्रबंधन किया है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि पानी का भंडारण कैसे किया जाए। बड़े, मंझोले या छोटे बांध का इस्तेमाल किया जाए या भूमिगत जल को रिचार्ज किया जाए अथवा बारिश के पानी का भंडारण कर उसे इस्तेमाल किया जाए। मुद्दा यह है कि पानी को कितने लंबे समय तक आर्थिक-सामाजिक-पर्यावरण के अनुकूल परिस्थितियों में रखा जा सकता है। भविष्य में नदियों को आपस में जोड़ने पर प्रगति को ध्यान में रखे बिना देश को अपनी भंडारण क्षमताएं बढ़ानी होंगी। साथ ही आर्थिक वृद्धि और लोगों का जीवन स्तर उठाने के लिए देश को जल प्रबंधन की अपनी क्षमताएं भी बढ़ानी होंगी। देश के पास इसके अलावा और कोई रास्ता नहीं है।

इस आलेख के लेखक असित के बिस्वास हैं

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