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ध्यान खींचने वाला फैसला

जागरण मेहमान कोना
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न्याय आदिम अभिलाषा है। इससे पीडि़त को संतोष होता है और समाज को अपराध न करने का संदेश। न्याय में देरी अन्याय होती है। पीडि़त निराश होते हैं और अपराधकर्मी प्रोत्साहित। 12 मार्च 1993 के दिन मुंबई में एक साथ 13 बम विस्फोट हुए थे। 253 निर्दोष मारे गए थे और 713 घायल। टाडा कोर्ट ने 12 को फांसी और 20 को आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी। देश की सर्वोच्च न्यायपीठ में यह मामला लंबा खिंचा। हत्या, हिंसा और रक्तपात की इस घटना के 20 बरस बाद सर्वोच्च न्यायालय ने याकूब मेमन को बम धमाकों की साजिश रचने, हथियार और धन उपलब्ध कराने का मुख्य दोषी पाया है और फांसी की सजा बरकरार रखी है। कोर्ट ने अन्य 10 की फांसी की सजा को उम्रकैद में बदल दिया है। 20 में से 17 को मिली उम्र कैद की सजा भी बरकरार रखी गई है। कोर्ट ने फिल्म अभिनेता संजय दत्त को शस्त्र अधिनियम के अधीन 5 वर्ष की सजा सुनाई है। सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के दूरगामी संदेश होंगे। कोर्ट ने इस फैसले में पाकिस्तान और पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आइएसआइ पर भी टिप्पणी की है। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता व प्रसिद्ध अभिनेता रहे सुनील दत्त के पुत्र संजय दत्त को मिली सजा से भी कोर्ट ने न्यायिक श्रेष्ठता का संदेश दिया है। संजय दत्त अंतरराष्ट्रीय ख्याति के अभिनेता हैं। उनकी सजा कोर्ट फैसले के चंद मिनट बाद ही राष्ट्रीय चर्चा बनी।


न्यायिक इतिहास में सुप्रतिष्ठित को दी गई सजा की कदाचित् यह पहली घटना है। इससे समूचे देश को अच्छा संदेश गया है कि भारत में कानून का राज है, विधि के समक्ष समता है। कानून ने अपना काम किया है। भारत का कानून बड़े आदमियों पर भी रहम नहीं करता। फिल्म उद्योग के बड़े-बड़ों ने भी सुप्रीम कोर्ट के निर्णय का आदर किया है। संजय के पास विकल्प कम हैं। वह देश की सर्वोच्च अदालत में ही पुनर्विचार की अर्जी दे सकते हैं। वह महाराष्ट्र के राज्यपाल से अनु. 161 के अधीन दंड की क्षमा प्रार्थना कर सकते हैं, राष्ट्रपति से अनुच्छेद 72 के अंतर्गत ऐसी ही दया क्षमा का अनुरोध कर सकते हैं। राज्यपाल या राष्ट्रपति को दी गई याचिकाओं में राज्य/केंद्र सरकारें ही संबंधित अपराध और दंड की गंभीरता पर टिप्पणी और क्षमा की सिफारिश करती हैं। सरकारों से संजय को अपनी लोकप्रियता का लाभ मिल भी सकता है और अतिलोकप्रिय होने के कारण ही सरकारें बदनामी के डर से ऐसा लाभ देने से पीछे भी हट सकती हैं। न्याय में देरी का मामला राष्ट्रीय चुनौती है। अनेक आपराधिक मामलों में वादी और अभियुक्त, दोनों ही वृद्ध हो जाते हैं और कुछेक की मौत भी हो जाती है, लेकिन न्यायिक कार्यवाही का अंत नहीं होता। अनेक गरीब अभियुक्त बिना सजा पाए ही जेल में पड़े रहते हैं और सुनवाई को तरसते रहते हैं। सरकारी कुव्यवस्था के कारण भारत में लाखों मुकदमे चल रहे हैं। सरकारें स्वयं भी हजारों मुकदमे दायर करती हैं। देश के उच्च न्यायालयों में मुकदमों का अंबार है, सुप्रीम कोर्ट में भी मुकदमों का अतिरेक है। हत्या, हत्या के प्रयास और दुष्कर्म आदि मामलों में परिजन, पीडि़त शीघ्र न्याय नहीं पाते। वे कानून अपने हाथ में लेने को मजबूर होते हैं। इससे अपराध बढ़ते हैं। मुकदमें भी बढ़ते हैं। मुंबई बम विस्फोट ने सारे देश को हिलाया था। पीडि़त बिलख रहे थे। राष्ट्र सन्न था। तात्कालिक न्याय की दरकार थी, लेकिन अंतिम फैसला 20 बरस बाद आया। एक अभियुक्त मर गया। अनेक वृद्ध हो गए। पीडि़तों के अनेक परिजनों ने न्याय होते नहीं देखा, अपराधियों को सजा पाते भी नहीं देखा। देश न्याय से मिलने वाले सामाजिक लाभ से वंचित रहा। न्यायपालिका सजग व जागरूक है। भारतीय न्याय व्यवस्था में सुनवाई के अनेक स्तर हैं। मुंबई हमले में कसाब रंगे हाथ मौके पर ही पकड़ा गया था।


वह भारत पर हमले का दोषी था, लेकिन भारतीय न्याय प्रणाली में उसे भी सुनवाई का पूरा अवसर मिला। आदर्श न्याय प्रणाली में ऐसे अवसर मिलने भी चाहिए, लेकिन न्याय में होने वाला असह्य विलंब राष्ट्र पर अपना प्रभाव नहीं छोड़ पाता। आखिरकार न्याय का उद्देश्य है क्या? न्याय पीडि़त को संतोष देता है। न्याय दोषी को दंड देता है, लेकिन इन दोनों उपलब्धियों के अलावा न्याय ही समाज को अपराध न करने के सख्त संदेश भी देता है। दंड भय समाज को अपराध मुक्त भी करता है, लेकिन अतिविलंबित न्याय के कारण अपराधी बेखौफ रहते हैं। उन पर दंड भय का असर नहीं पड़ता। वे लंबे समय तक चलने वाली न्यायिक कार्यवाही का बेजा लाभ उठाते हैं। साक्ष्य तोड़ते हैं और साक्ष्य नष्ट करने में सफल भी होते हैं, लेकिन न्यायपालिका लाचार है। लाखों मुकदमों के बावजूद अदालतें कम हैं, उपलब्ध अदालतों में भी अपेक्षानुसार न्यायाधीश नहीं हैं। मुकदमे बढ़ रहे हैं, न्यायाधीशों के पद रिक्त हैं। मुंबई बम विस्फोट के ताजा फैसले ने देश का ध्यान कई महत्वपूर्ण बातों की ओर आकर्षित किया है। न्याय में देरी इस फैसले का एक निहितार्थ है। त्वरित न्याय मौलिक समस्या है। संविधान की उद्देश्यिका में भी न्याय की ही गारंटी है। सुदृढ़ न्यायपालिका ही मौलिक अधिकारों की संरक्षक हो सकती है। केंद्र सरकार को अदालतों और न्यायाधीशों की संख्या बढ़ानी चाहिए। इस फैसले ने पाकिस्तान और आइएसआइ को भी बेनकाब किया है। आइएसआइ भारत के विरुद्ध लंबे अर्से से सक्रिय है। भारतीय खुफिया एजेंसियां इस तथ्य से अवगत हैं। पाकिस्तानी सत्ता पर उसका प्रभाव है। वह भारत को तहस-नहस करने पर आमादा है। पाकिस्तान ने इस बीच काफी शरारतें की हैं। आतंकी हमले जारी हैं। बेशक सर्वोच्च न्यायपीठ ने मुंबई बम विस्फोट की ओर ही ध्यान आकर्षित किया है, लेकिन इस फैसले में अनेक महत्वपूर्ण संकेत भी हैं। केंद्र राजधर्म क्यों नहीं निभाता? मुंबई विस्फोटों के अन्य साजिशकर्ता पाकिस्तान में मजे से हैं। केंद्र के पास उसके प्रमाण भी हैं। केंद्र ने क्या किया? पाकिस्तान के प्रति केंद्र का रुख मैत्रीपूर्ण ही क्यों बना हुआ है? पाकिस्तानी संसद ने अफजल को लेकर भारत विरोधी प्रस्ताव किया। मुंबई बम विस्फोट, मुंबई हमला और सारी आतंकी वारदातें सीधे संप्रभुता पर ही हमला हैं। केंद्र ने इन सबका वाजिब प्रतिकार क्यों नहीं किया? सर्वोच्च न्यायपीठ ने अफजल की फांसी की सजा बरकरार रखी थी। केंद्र ने ही मामले को लटका कर सांप्रदायिक बनाया। भारत पाक प्रायोजित आतंकवाद और आइएसआइ की देश विध्वंसक गतिविधियों पर भी नरम क्यों बना हुआ है? सर्वोच्च न्यायालय ने एक असाधारण मुकदमे का निस्तारण किया है। देश ने इस निर्णय का स्वागत किया है, देश में अच्छा संदेश गया है, इसमें कानून तोड़कों के साथ पड़ोसी देश को भी चेतावनी है, लेकिन मूलभूत प्रश्न यही है केंद्र की मनमोहन सिंह सरकार ने इस फैसले से अपने लिए क्या पाया है?


इस आलेख के लेखक हृदयनारायण दीक्षित हैं

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