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सच्चा और खरा जीवन

जागरण मेहमान कोना
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आंचलिक जीवन के चित्रों को जस का तस उतार कर अपने पहले उपन्यास गंवई गंध गुमान से ही सोमेश शेखर ने खुद को अवध के ग्रामीण जीवन का सच्चा और खरा लेखक सिद्ध कर दिया है। ठेठ देहाती पृष्ठभूमि से निकला यह उपन्यास अवधी की सहजता-सरलता से ओतप्रोत है.. बलराम समकालीन हिंदी साहित्य से ग्राम जीवन को जैसे निर्वासन ही दे दिया गया है। वहां ज्यादातर शहरी मध्यवर्गीय जीवन ही छाया रहता है। कभी-कभार ग्राम जीवन पर केंद्रित साहित्य दिखता भी है तो वह उन लोगों द्वारा लिखा गया होता है, जो बहुत पहले गांव में पैदा हुए थे और प्रारंभिक शिक्षा के बाद पढ़ने-लिखने के बहाने एक बार गांव से शहर आए तो फिर वापस पलटकर उन्होंने अपने गांव को नहीं देखा। इसलिए उन्हें आज के गांव की ताजा स्थितियों की कोई जानकारी नहीं है। जब जानकारी ही नहीं है तो समकालीन गांव पर केंद्रित उनकी रचना कल्पना की ऊंची उड़ान के सिवा और क्या होगी! अगर कुछ होगी भी तो सिर्फ नोस्टाल्जिक सृजन, जिसमें गांव का एक सिरा तो उनके हाथ में होगा, लेकिन दूसरा सिरा किसके हाथ में होगा, कुछ कहा नहीं जा सकता। उनके सृजन का दूसरा सिरा अक्सर बाजार के हाथ में मिलता है और बाजार उसका उपयोग बहुराष्ट्रीय कंपनियों के उत्पाद बेचने में करता पाया जाता है, जहां गांव और ग्रामीण जीवन होता तो है, पर उसका असलियत से कोई लेना-देना नहीं होता। लेकिन, सोमेश शेखर चंद्र का उपन्यास गंवई गंध गुमान बिल्कुल भी ऐसा नहीं है।

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इसे पढ़ते हुए सहसा फणीश्वरनाथ रेणु के बहुचर्चित उपन्यास मैला आंचल और परती परिकथा याद आ गए और याद आ गई शिवमूर्ति की कसाईबाड़ा, भरतनाट्यम तथा तिरिया चरित्तर जैसी कहानियां और उनके उपन्यास आखिरी छलांग के अनेक चित्र और चरित्र। गंवई गंध गुमान का पहला ही अध्याय पढ़ते हुए शिवमूर्ति की कहानी सिरी उपमा जोग के नायक की याद आई, जिसमें वह गांव से आए अपने ही बेटे को बेटा नहीं कह पाता, तो सोमेश शेखर चंद्र का नायक गांव से शहर आए अपने पिता को अपना पिता नहीं बता पाता। गांव से शहर आए भाई को भाई कह तो पाया, लेकिन दो-चार घंटे भी अपने घर रख नहीं पाया। सोमेश शेखर चंद्र ने अपने इस पहले ही उपन्यास में जो पाठ्य सामग्री पेश की है, वह एकदम प्रामाणिक लगती है, जिस पर पाठक सहज ही विश्वास कर सकता है और किसी भी लेखन के साहित्य होने की पहली शर्त ही यह होती है कि वह विश्वसनीय लगे। प्रेमचंद, रेणु, मार्कडेय, शिवप्रसाद सिंह, शेखर जोशी और शिवमूर्ति के लेखन की व्यापक स्वीकृति उनके लेखन की इस विश्वसनीयता से ही तो है। सुल्तानपुर जनपद में जायसी, रामनरेश त्रिपाठी, त्रिलोचन, मानबहादुर सिंह, संजीव, शिवमूर्ति, अखिलेश, डॉ. डी.एम. मिश्रा, चिरकुट गौरीगंजवी और रामनरेश पाल जैसे सर्जकों की लंबी और गौरवशाली परंपरा रही है। छिटपुट प्रकाशित कृतियों के साथ सोमेश शेखर भी उसी परंपरा में शामिल हो गए हैं। इसलिए भी कि ठेठ देहाती पृष्ठभूमि से निकला उनका उपन्यास गंवई गंध गुमान अपनी बोली-बानी में अवधी की सहजता-सरलता से ओत-प्रोत है, जिसके हरफ-हरफ में ग्रामीण जीवन का तिक्त-मधुर रस प्रवाहित हो रहा है। युग तेवर के यशस्वी संपादक कमल नयन पांडेय मानते हैं कि गंवई गंध गुमान उपन्यास के पारंपरिक तटबंध को तोड़ता हुआ जीवन मुक्ति की कथात्मक व्यंजना है, जबकि इंद्रमणि कुमार कहते हैं कि गंवई गंध गुमान में गांव को देखने का नजरिया सम्मोहन का नहीं है। इसलिए यह गांव में सामंती और पुरुष वर्चस्ववादी समाज की विसंगतियों को उभारने में पूरी तरह सफल हो पाया है। डॉ. राधेश्याम सिंह कहते हैं कि इस उपन्यास के अंतर्साक्ष्य बताते हैं कि इसमें चित्रित गांव का तीन चौथाई हिस्सा वर्तमान परिस्थितियों से संबद्ध है, जबकि इसके सर्जक सोमेश शेखर चंद्र कहते हैं कि उनकी यह कृति चालीस साल पहले लिखी गई थी। शिवमूर्ति को लगता है कि इस रचना में जितना कच्चा माल है, उसे उनके जैसा लेखक कंजूसी से खर्च करता हुआ डेढ़ सौ कहानियां लिख सकता था। बहरहाल, सोमेश शेखर चंद्र के उपन्यास गंवई गंध गुमान को श्रेणीबद्ध करना हो तो गोविंद मिश्र के लाल पीली जमीन के साथ इसे सहज ही रखा जा सकता है और रखा जा सकता है जगदीश चंद्र के धरती धन न अपना के साथ भी। गोविंद मिश्र ने अपने उपन्यास लाल पीली जमीन में बुंदेलखंड के परिवेश का प्रामाणिक और विश्वसनीय चित्रण किया है तो जगदीश चंद्र ने पंजाब के जीवन को पंजाबी आबोहवा के साथ दर्ज किया है। इसी तरह सोमेश शेखर चंद्र के उपन्यास गंवई गंध गुमान में अवध के ग्रामीण जीवन का परिवेश अपने प्रामाणिक रूप में उपस्थित है।

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उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान के भारत भारती सम्मान से नवाजे गए गोविंद मिश्र का लाल पीली जमीन हो या जगदीश चंद्र का धरती धन न अपना अथवा सोमेश शेखर चंद्र का गंवई गंध गुमान, तीनों में ही चरित्रों की बजाय चित्रों की बहुलता है, जिससे समूचा परिवेश उभरकर सामने आ जाता है। इस तरह अपने पहले उपन्यास से ही सोमेश शेखर ने खुद को अवध के ग्रामीण जीवन का सच्चा और खरा लेखक सिद्ध कर दिया है। पहला उपन्यास होने के नाते कुछ कमियां और त्रुटियां रह जाना स्वाभाविक है, जो ज्यादातर भाषागत हैं, जिन्हें योग्य संपादक अथवा अछा प्रूफरीडर ठीक कर सकता था, लेकिन हिंदी प्रकाशनों का दुर्भाग्य यह है कि अब वहां न तो योग्य संपादक हैं, न ही अच्छे प्रूफरीडर। जबकि संपादक क्या कर सकता है, इसे हेमिंग्वे के नोबेल पुरस्कार प्राप्त उपन्यास दि ओल्ड मैन एंड द सी के उदाहरण से समझा जा सकता है। छह सौ पेज के भारी-भरकम उपन्यास को हेमिंग्वे के संपादक ने काटकर सौ पृष्ठों में समेट दिया था, जिसे हेमिंग्वे ने सहर्ष स्वीकार किया और फिर हम सब जानते हैं कि दि ओल्ड मैन एंड द सी को कैसे नोबेल पुरस्कार मिला और कैसे आज वह विश्व की क्लासिक कृतियों में शुमार है। उम्मीद है कि सोमेश शेखर चंद्र का उपन्यास भी चर्चा और प्रसिद्धि प्राप्त करेगा।


इस आलेख के लेखक बलराम हैं


Tags: literature, literature and revolution, संपादक, शिवमूर्ति, उपन्यास, हिंदी संस्थान

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