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भारत में संविधान सवरेपरिता है। यही सवरेपरि राजधर्म है। संसद संवैधानिक सत्ता का मुख्य स्नेत है। संसद में ही प्रधानमंत्री व सत्ता का जीवन है और संसद की शक्ति का मूलस्नेत हैं- ‘हम भारत के लोग’। ‘भारत के लोग’ ही संसद चुनते हैं। सरकार संसद के सामने जवाबदेह है, लेकिन संप्रग सत्ता ने संसद व संसदीय प्रणाली से जुड़ी सभी संस्थाओं का चीरहरण किया है। संसदीय जनतंत्र संस्थाओं से ही गतिशील रहते हैं, संसदीय कार्य का लगभग आधा काम संसदीय समितियां करती हैं। संसद में राजनीतिक दृष्टिकोण को लेकर बहुधा बाधाएं आती हैं। संसदीय समितियों में गहन विमर्श होते रहे हैं। यहां राजनीतिक तकरार की संभावनाएं नहीं होतीं, लेकिन 2जी भ्रष्टाचार की जांच कर रही संयुक्त संसदीय समिति ने निराश किया। रार पहले से ही थी अब तकरार जारी है। कांग्रेस और भाजपा आमने-सामने हैं। तमाम राजनीतिक दुराग्रहों से संसदीय कार्य की गुणवत्ता घटी है। इसका प्रभाव संसदीय समितियों पर भी पड़ रहा है।
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स्पेक्ट्रम घोटाले की जांच के लिए फरवरी 2011 में संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) गठित की गई थी। सरकार इस समिति के गठन के लिए तैयार नहीं थी। भाजपा ने दबाव बनाया, संसदीय कार्यवाही रुकी रही, तब सरकार झुकी। पीसी चाको के सभापतित्व में समिति ने काम शुरू किया। संसदीय गतिरोध से देश को संदेश गया था कि संयुक्त संसदीय समिति की जांच आदर्श होती है। लोकलेखा समिति के बारे में भी ऐसी ही धारणा है, लेकिन कांग्रेसजनों ने लोकलेखा समिति की पवित्रता पर भी हमला किया। जेपीसी की कार्यवाही देश के सामने है। घोटाले के मुख्य आरोपी पूर्व मंत्री ए. राजा समिति से अनुरोध कर रहे हैं कि उन्हें साक्ष्य के लिए बुलाया जाना चाहिए, लेकिन उन्हें बुलाया नहीं गया। राजा ने कहा था कि आवंटन के संबंध में ‘प्रधानमंत्री को भी जानकारी थी।’ वित्तमंत्री भी इस तथ्य से अवगत थे। यशवंत सिन्हा ने प्रधानमंत्री को पत्र लिखा और उनसे समिति में साक्ष्य देने की मांग की है। चाको ने सिन्हा के पत्र लिखने के अधिकार को ही चुनौती दी है। आखिरकार एक वरिष्ठ सांसद और पूर्व मंत्री प्रधानमंत्री को पत्र क्यों नहीं लिख सकता? लेकिन संसदीय प्रक्रिया से जुड़े मूलभूत अन्य प्रश्न भी हैं।
जेपीसी संसद का भाग है और संसद की इच्छानुसार ही काम करती है। चाको की यह बात उचित है कि मंत्री को बुलाने के लिए समिति का प्रस्ताव जरूरी है, लेकिन चाको ने यह नहीं बताया कि समिति में ऐसे प्रस्ताव को पारित कराने के बाधक तत्व क्या हैं? भाजपा ऐसी मांग कर ही रही है, कांग्रेस ऐसा प्रस्ताव क्यों नहीं पारित करवाती? चाको को यह भी बताना चाहिए कि ए. राजा अब मंत्री नहीं हैं, उन्हें बुलाने के लिए किसी प्रस्ताव की आवश्यकता नहीं है बावजूद इसके उन्हें क्यों नहीं बुलाया गया? मंशा साफ है कि कांग्रेसी इस मामले में वास्तविक दोषियों तक जांच की आंच पहुंचने से भयभीत हैं। इससे संसदीय परिपाटी और समिति की साख को बट्टा लगा है। पहले लोकलेखा समिति और अब जेपीसी की कार्यवाही को राजनीतिक बनाकर कांग्रेस ने संसदीय परंपरा को भारी क्षति पहुंचाई है। चाको ने यशवंत सिन्हा के पत्र को राजनीतिक नौटंकी कहा है। प्रश्न यह है कि ए. राजा और मनमोहन सिंह को साक्ष्य के लिए न बुलाना और संसदीय समिति को राजनीतिक हितों के लिए इस्तेमाल करना राजनीतिक नौटंकी क्यों नहीं है?
जेपीसी संसद की अपनी प्रतिष्ठित जांच संस्था है। संप्रग इसीलिए 2जी घोटाले की जांच जेपीसी से नहीं चाहता था, लेकिन विपक्ष के दबाव में जेपीसी बनी तो सत्तापक्ष ने अपने प्रभाव का बेजा इस्तेमाल किया। जेपीसी की सार्थकता कांग्रेसी नियंत्रण का शिकार हुई। इसी अनुभव के चलते वीआइपी हेलीकॉप्टर डील पर कांग्रेस जेपीसी जांच के लिए तत्पर थी। बोफोर्स तोप मामले में बनी जेपीसी (1987) में भी कांग्रेस ने यही आचरण किया था। विपक्ष ने उस जेपीसी का बहिष्कार किया था। भाजपा ने फिलहाल वर्तमान जेपीसी का बहिष्कार किया है। बोफोर्स तोप घोटाले को जनता ने सच माना था, 2जी को तो न्यायपालिका ने भी प्रथम दृष्टया सच माना है। बैंक लेनदेन आदि अनियमितताओं की जांच करने वाली जेपीसी अगस्त 1992 में बनी थी, लेकिन समिति की संस्तुतियां लागू नहीं हुईं। बाजार घोटाले की जांच के लिए गठित जेपीसी ने स्टाक मार्केट पर तमाम सिफारिशें (2001) की थीं। इसकी महत्वपूर्ण सिफारिशें लागू नहीं हुईं। शीतल पेयों में जहरीले रसायनों की जांच के लिए बनी जेपीसी (2004) ने जहरीले रसायनों की पुष्टि की, लेकिन निष्कर्षो पर कुछ नहीं हुआ। जेपीसी का लगातार महत्वहीन होना राष्ट्र के लिए अशुभ है। आधुनिक संसदीय समिति प्रणाली विषय विशेष की जांच व विचारण का आदर्श तंत्र है। लोकसभा प्रयोजन विशेष के लिए बजट आवंटित करती है। लोकलेखा समिति आवंटित धनराशि का उन्हीं प्रयोजनों में विवेकपूर्ण व्यय जांचती है। कैग इसकी प्राथमिक जांच का पहरेदार है।
सार्वजनिक उपक्रम समिति भी ऐसी ही महत्वपूर्ण संस्था है। विशेषाधिकार समिति, सदन के विशेषाधिकार का अवमान जांचती है। नियम समिति सदन की कार्यवाही के नियमों का पुर्नीक्षण करती है। संसद में दिए गए सरकारी आश्वासनों को पूरा कराने के लिए आश्वासन समिति है। याचिका समिति जनहित का अच्छा माध्यम है। इसके अलावा अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों के कल्याण वाली समिति भी मौजूद है। ऐसी समितियों के माध्यम से संसद अपना कार्य करती है। समिति प्रणाली का ह्रास पूरी संसदीय परंपरा का क्षरण है। इसकी मुख्य अभियुक्त कांग्रेस ही है। कांग्रेस ने देश में लंबे समय तक राज किया है। संसदीय जनतंत्र बहुमत की मनमानी नहीं है। 1947 से 1952 तक अंत:कालीन संसद व 1952 में गठित पहली लोकसभा के अध्यक्ष रहे जीवी मावलंकर ने कहा था कि यदि संसदीय सरकार का कार्य केवल सदस्यों की गिनती तक ही सीमित रहेगा और हम केवल बहुमत के आधार पर ही कार्य करेंगे तो फासिज्म, हिंसा और विद्रोह के बीज बोएंगे। वही हुआ जैसी आशंका थी। कांग्रेस संसद को सत्ता का केंद्र नहीं मानती। वह बहुमत का दुरुपयोग करती है। प्रधानमंत्री को भी वास्तविक प्राधिकार नहीं देती। ताजा कांग्रेसी शोध में सत्ता के दो केंद्र सोनिया व मनमोहन सिंह बताए गए हैं। संप्रग सत्ता के नौ बरस संवैधानिक संस्थाओं के अपमान, क्षरण व चीरहरण के गवाह हैं। कार्यपालिका ने मनमानी की है। न्यायालयों को भी चेतावनियां दी गई हैं। संघीय ढांचे को क्षति पहुंचाई गई है। प्रधानमंत्री, संसद संसदीय समितियां और सारी संस्थाएं सोनिया गांधी के नियंत्रण में हैं। हिटलर ने जर्मनी में संसद का ऐसा ही दुरुपयोग किया था। यह फासिज्म नहीं है तो और है क्या ?
इस आलेख के लेखक हृदयनारायण दीक्षित हैं
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