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सियासत का मोहरा बना सरबजीत

जागरण मेहमान कोना
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पाकिस्तान की जेल में बंद भारतीय नागरिक सरबजीत सिंह पर जानलेवा हमला एक सुनियोजित साजिश थी, इस पर न तो पहले किसी को संदेह था और न अब है। अब रही उसकी सुरक्षा की बात तो जब रक्षक ही हमले करवाएं और इसमें खासतौर से हुकूमत शामिल हो तो फिर कौन है जो बचा पाएगा। इसलिए इन बातों में कोई दम नहीं कि किस सरकार की विदेश नीति कमजोर है और किसकी मजबूत। बल्कि असल मुद्दा यह है कि कौन-सी सरकार अपने लाभ के लिए किस हद तक गिर सकती है? वैसे राजनीतिक लाभ के लिए किसी भी स्तर तक गिरने में हमारे यहां के भी राजनीतिक दल पीछे नहीं हैं। ठीक इसी तरह की गिरी हुई हरकत पाकिस्तान में हुई है। पाकिस्तान की राजनीति हमेशा से भारत के विरोध पर जिंदा रही है। जिसने भारत को जितना कोसा, पाकिस्तान में उसको उतना ही समर्थन मिला है। सरबजीत पर हमला भी राजनीतिक लाभ के लिए ही कराया गया हो, इससे इन्कार नहीं किया जा सकता। पाकिस्तान के मौजूदा हालात ठीक नहीं हैं। लगातार हो रही आतंकी वारदातों और तालिबान के बढ़ते वर्चस्व, राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी के भ्रष्टाचार और पूर्व राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ की देशद्रोही गतिविधियां सामने आने के बाद किसी भी राजनीतिक पार्टी में पाकिस्तानी आवाम के सामने वोट मांगने की औकात नहीं बची है। वैसे पाकिस्तान में सिर्फ एक ही मुद्दा है, जो किसी भी पार्टी को बढ़त दिला सकता है और वह है भारत का विरोध। भारत में कुछ अरसा पहले पाकिस्तानी नागरिक और मुंबई हमलों के दोषी आमिर अजमल कसाब को फांसी की सजा दी गई है। इसके कुछ महीने बाद संसद पर हमले के लिए पाकिस्तानी आतंकियों की मदद करने वाले अफजल गुरु को भी फांसी पर लटकाया गया है। पाकिस्तान ने इसका तीखा विरोध किया था और साथ ही बदले की धमकियां भी दी गई थीं।


अफजल की फांसी के बाद यह चर्चा भी जोरों पर थी कि इस सजा से सरबजीत की रिहाई प्रभावित हो सकती है। और वही दिन सामने आया है। सरबजीत की बेगुनाही को जिस तरह मीडिया सामने लाया, उससे पाकिस्तान पर इतना दबाव तो बन गया था कि वह उसे फांसी पर नहीं लटका सकता, लेकिन जेल में हमला हो जाए तो इसके लिए कोई क्या कर सकता है, तो यही सोचकर पाकिस्तान ने यह पाप कर्म कर डाला। चुनावों में लाभ मिल सके संभवत: इसीलिए सरबजीत पर हमला किया गया है। इसके पीछे एक और मजबूत तर्क यह है कि जिन कैदियों ने उस पर हमला किया है, वे सालों से उसके साथ ही उसी जेल में रह रहे हैं। उन्हें आज तक सरबजीत से घृणा क्यों नहीं हुई? अफजल गुरु को फांसी पर लटकाने के तत्काल बाद घृणा क्यों नहीं हुई? और भी भारतीय कैदी उस जेल में हैं, उनसे घृणा क्यों नहीं हुई? उनसे इसलिए नफरत की कोई जरूरत नहीं है, क्योंकि वे कैदी चर्चित नहीं हैं। उन कैदियों पर हमले से शायद भारत में और भारतीय और पाकिस्तानी मीडिया में इतनी हलचल नहीं होती, जितनी सरबजीत पर हमले से होनी थी। इसलिए हमले के लिए सरबजीत को चुना गया। अब देखना यह है कि चुनाव में इसका लाभ पाकिस्तान की किस पार्टी को मिलता है। सरबजीत भारत में भी मुद्दा बना हुआ है। उस पर हुए हमले का राजनीतिक लाभ लेने के लिए यहां भी दलों में दो-दो हाथ हो रहे हैं। यहां साल भर पहले से ही लोकसभा चुनावों की तैयारियों के तहत विपक्ष सरकार को कमजोर साबित करने पर तुला हुआ है तो सरकार भी पूर्व में हुए कंधार कांड, संसद पर हमले की याद दिलाकर विपक्ष को अपने गिरेबां में झांकने की नसीहत दे रही है। सरकार की कोशिश है कि लोगों में यह संकेत जाए कि वह सरबजीत को लेकर संवेदनशील है, इसलिए तत्काल पाकिस्तान से बात हो गई और 15 दिन का वीजा भी उसके परिवार को मिल गया। वहीं विपक्ष की पूरी कोशिश है कि सरकार को हर मामले में सिर्फ अपनी चिंता करने वाली साबित कर दिया जाए। इसलिए जनता को बताया जा रहा है कि सरबजीत ने और उसके परिवार ने कब-कब सरबजीत की सुरक्षा की चिंता जाहिर की और सरकार हाथ पर हाथ धरे बैठी रही। गहराई से देखें तो सरबजीत दोनों मुल्कों के सियासतदानों के लिए मोहरा बन गया है और 24 साल से अपने भाई का मुंह देखने के लिए बहन, पति का मुंह देखने के लिए पत्नी और बाप का प्यार पाने के लिए तरस रही बेटियों की उम्मीद टूटती जा रही है। उन्हें सरबजीत देखने को भी मिला तो उस वक्त, जब वह अपनी बच्चियों के सिर पर हाथ भी नहीं फेर सकता।


इस आलेख के लेखक विवेकांनद हैं


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