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कोयला घोटाले से जुड़े मामले की सुनवाई के दौरान स्टेटस रिपोर्ट सरकार को दिखाए जाने पर अपनी नाराजगी व्यक्त करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि उसे सर्वप्रथम सीबीआइ को राजनीतिक हस्तक्षेप और किसी भी प्रकार के बाहरी प्रभाव से मुक्त करना होगा। जिस तरह से जांच रिपोर्ट सरकार को दिखाई गई वह देश के सर्वोच्च न्यायालय के साथ विश्वासघात था। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि जहां तक अभियोग की विवेचना का सवाल है, सीबीआइ किसी के अधीन नहीं है। सीबीआइ निदेशक का यह कहना कि वह सरकार के ही एक अंग हैं अर्थात जांच रिपोर्ट दिखाने में कोई अनियमितता नहीं हुई, विचार करने लायक बयान था। सीबीआइ केवल प्रशासनिक मामलों के लिए सरकार के अधीन है। जहां तक अभियोगों की विवेचना का प्रश्न है, उसमें हस्तक्षेप करने का या विवेचना को कोई दिशा देने का देश में किसी को भी अधिकार नहीं है।
सीबीआइ की स्वायत्तता को लेकर समय-समय पर सवाल उठते रहे हैं, परंतु सरकार ने इस दिशा में कभी समुचित कार्रवाई नहीं की। गत वर्ष सीबीआइ के एक भूतपूर्व निदेशक यूएस मिश्र ने 13 दिसंबर, 2012 को एक बयान में कहा था कि जब भी सीबीआइ महत्वपूर्ण राजनीतिक व्यक्तियों के मामलों की विवेचना करती है तो उसके ऊपर प्रगति रिपोर्ट को लंबित रखने या उसे किसी खास तरह से प्रस्तुत करने के लिए दबाव रहता है। मिश्र ने यह भी कहा कि ऐसी स्थिति का उन्हें मायावती और मुलायम सिंह के विरुद्ध विवेचना करते समय सामना करना पड़ा था। दूसरी तरफ समाजवादी पार्टी के नेता मुलायम सिंह समय-समय पर आरोप लगाते रहते हैं कि केंद्र सरकार सीबीआइ का डर दिखाकर नीतियों के समर्थन के लिए दबाव डालती है। उल्लेखनीय है कि इस वर्ष मार्च के महीने में जब द्रमुक के नेता स्टालिन और अलागिरी के घरों पर छापा पड़ा तो प्रधानमंत्री ने कहा कि छापे दुर्भाग्यपूर्ण हैं और वित्तमंत्री चिदंबरम ने कहा कि वह सीबीआइ कार्रवाई का समर्थन नहीं करते। इन बयानों द्वारा उन्होंने अप्रत्याशित रूप से यह स्वीकार किया कि सरकार अपने राजनीतिक लाभ के लिए सीबीआइ द्वारा छापे डलवाती है। 1978 में एलपी सिंह समिति ने संस्तुाति की कि केंद्र सरकार को सीबीआइ को कानूनी आधार देने के लिए एक अधिनियम पारित करना चाहिए। कालांतर में विनीत नारायण केस में सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआइ निदेशक की नियुक्ति के प्रावधान बनाए और उन्हें दो साल का न्यूनतम सेवाकाल दिया। आशा की जाती थी कि भविष्य में सीबीआइ निदेशक स्वतंत्र भाव से अपने उत्तरदायित्वों का निर्वहन करेंगे, परंतु सरकार ने नियुक्ति प्रक्रिया को विकृत करते हुए अपने चहेतों को सीबीआइ निदेशक पद पर नियुक्त किया। उदाहरण के लिए एक निदेशक ने सरकार के कहने पर 1984 के सिख विरोधी दंगों में दोषी नेताओं को बचाया। सरकार के कहने पर उन्होंने जो कुछ किया उसके लिए उन्हें पुरस्कार स्वरूप एक प्रदेश का राज्यपाल बना दिया गया।
2007 में संसद की स्थायी समिति ने सीबीआइ के लिए एक अलग एक्ट बनाने की सिफारिश की ताकि जनता की इस संस्थास की विश्वसनीयता और निष्पक्षता पर विश्वास बढ़े। 2007 में प्रशासनिक सुधार आयोग ने भी कहा कि सीबीआइ के लिए एक नया कानून तुरंत पारित किया जाना चाहिए। 2008 में संसद की स्थायी समिति ने अपनी 24वीं रिपोर्ट में सीबीआइ के कामकाज में राजनीतिक हस्तक्षेप पर चिंता व्यक्त की और कहा कि सीबीआइ को कानूनी आधार देकर उसकी जनशक्ति और संसाधनों में वृद्धि कर उसे सशक्त बनाने की आवश्यकता है। समिति ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि सीबीआइ को संवैधानिक आधार दिया जाना चाहिए।
यह तो रहीं समय-समय पर दी गई संस्तुतियां। वास्तविकता यह है कि सीबीआइ को विवेचना का अधिकार 1946 के दिल्ली स्पेशल पुलिस स्टैब्लिशमेंट एक्ट के आधार पर है। यह अधिकार भी केवल केंद्र शासित राज्यों तक सीमित है। राज्य सरकारों की सहमति से ही केवल सीबीआइ अन्य मामलों की जांच कर सकती है। यह भी हास्यास्पद है कि सीबीआइ का गठन 1 अप्रैल, 1963 को एक प्रस्ताव द्वारा किया गया था। ड्राफ्ट सीबीआइ एक्ट 1990 और 1995 में बनाए गए थे, पर सरकार को रास नहीं आए। शायद यह समझा गया कि चालू व्यवस्था, जिसके अंतर्गत समय-समय पर दखलंदाजी की जा सकती है, ज्यादा ठीक रहेगी। लोकपाल बिल पर बहस के दौरान सुझाव दिया गया कि सीबीआइ की विवेचना शाखा लोकपाल के अधीन कर दी जाए। हमें यह याद रखना होगा कि सीबीआइ के मुख्य रूप से तीन अंग हैं- भ्रष्टाचार निवारण शाखा, आर्थिक अपराध शाखा और विशेष अपराध शाखा। यह तीनों शाखाएं एक-दूसरे से तालमेल करते हुए काम करती हैं। अगर इनमें से एक को भी अलग कर दिया जाएगा तो संस्थान को भयंकर चोट पहुंचेगी और सीबीआइ अक्षम हो जाएगी। सीबीआइ के संस्थागत अस्तित्व के साथ खिलवाड़ नहीं होना चाहिए। आज सीबीआइ में भारी संख्या में रिक्तियां हैं। मुख्य सतर्कता आयुक्त की पिछली वार्षिक रिपोर्ट के अनुसार 6590 स्वीकृत पदों के विरुद्ध 924 पद खाली थे। इन्हें न केवल भरा जाना चाहिए, बल्कि बढ़ती हुई जिम्मेदारियों को देखते हुए सीबीआइ की जनशक्ति में वृद्धि होनी चाहिए।
वित्तीय दृष्टि से भी सीबीआइ को स्वायत्तता चाहिए। पूर्व अनुभव यह है कि जब भी निदेशक ने सरकार की बात नहीं मानी या थोड़ी स्वतंत्रता दिखाई तो वित्तीय आवंटन रोक दिए गए। एक समय ऐसा आया था कि विभाग के विवेचना अधिकारियों को यात्र के लिए भत्ते देने तक का पैसा नहीं था। सुप्रीम कोर्ट से अपेक्षा की जाती है कि जैसे जैन हवाला केस के संदर्भ में जस्टिस वर्मा ने सीबीआइ को एक सही आधार देने की कोशिश की उसी प्रकार आज कोयला घोटाले के संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट विगत वर्षो के आधार पर सीबीआइ को राजनीतिक और प्रशासनिक दबाव से मुक्त करने के लिए आवश्यक निर्देश दे। स्थायी तौर पर समाधान के लिए सरकार को सीबीआइ के लिए एक अधिनियम बनाना होगा जिसमें संस्था को कैग की तर्ज पर संवैधानिक अधिकार दिए जाएं और साथ ही साथ उसे आवश्यक जनशक्ति और संसाधन उपलब्ध कराए जाएं। सीबीआइ देश की सर्वोच्च जांच एजेंसी है। यह अत्यंयत आवश्यक है कि सभी को उसकी निष्पक्षता में पूरा विश्वास हो। इसके लिए आवश्यक अधिनियम पारित किया जाना चाहिए। अगर ऐसा नहीं हुआ तो यह तय है कि हमारे लोकतांत्रिक ढांचे की नींव हिल जाएगी, जैसा कि सुप्रीम कोर्ट ने कहा भी है।
इस आलेख के लेखक प्रकाश सिंह हैं
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