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Mahatma Gandhi Life History
महात्मा गांधी ने करीब 20 वर्ष वकालत की और एक सफल वकील के रूप में काफी ख्याति कमाई, परंतु आज के हिसाब से करोड़ों रुपये की प्रैक्टिस छोड़कर उन्होंने जन सेवा के लिए अपने को समर्पित कर दिया। वकील के रूप में उनहोंने कभी कोई झूठा मुकदमा नहीं लिया और न ही असत्य का सहारा नहीं लिया। उन्होंने लिखा है कि उनकी ऐसी छवि बन गई थी कि कोई झूठा मुकदमा उनके पास आता ही नहीं था। उन्होंने एक मामले का जिक्र किया है, जो कड़ा ट्रायल था। अवार्ड पूरी तरह उनके मुवक्किल के पक्ष में गया था, परंतु पंचों ने अनजाने में गणना में एक गलती की थी, जो छोटी थी लेकिन गंभीर थी। इसमें एक एंट्री जिसे घटाए जाने (डेबिट) के कॉलम में होना चाहिए था उसे क्रेडिट में दिखाया गया था। विरोधी पक्ष ने अवार्ड का विरोध अन्य मुद्दों पर किया था, लेकिन उस पर नहीं। इस मामले में गांधीजी कनिष्ठ अधिवक्ता थे। जब वरिष्ठ अधिवक्ता की जानकारी में यह भूल आई तो उनका मत था कि कोई भी वकील ऐसी कोई भी बात मानने को बाध्य नहीं है जो उसके मुवक्किल के खिलाफ जाती हो। अंतत: वरिष्ठ अधिवक्ता ने इस शर्त पर बहस करने से मना कर दिया कि उन्हें इस भूल को स्वीकार करना पड़ेगा, परंतु गांधीजी ने इस शर्त पर काम करना स्वीकार किया और इसके लिए मुवक्किल की सहमति उन्हें मिल गई। उनके लिए तथ्य का तात्पर्य सत्य था, जिसका अहसास उन्हें सेठ अब्दुल्ला का मामला तैयार करते वक्त हुआ, जिसके लिए वह दक्षिण अफ्रीका गए थे। उन्होंने लिखा है, ‘तथ्य का अर्थ सत्य है और एक बार जब हम सत्य से चिपक जाते हैं तो कानून हमारी मदद में अपने आप चला आता है।
Justice And Truth: Judiciary Of India
हाल में एडिशनल सॉलिसिटर जनरल हरिन रावल तथा अटार्नी जनरल जीई वाहनवती की भूमिका को लेकर जो विवाद उठा कि कोयला घोटाले की सीबीआइ द्वारा की जा रही जांच के बारे में उन्होंने उच्चतम न्यायालय को दिग्भ्रमित किया वह वकीलों की भूमिका के बारे में गंभीर सवाल खड़ा करता है। वकील अदालत के अधिकारी होते हैं, जिनका कर्तव्य है न्याय तक पहुंचने में न्यायालय की सहायता करना। रावल त्यागपत्र देने को बाध्य हुए जब यह स्पष्ट हो गया कि उन्होंने कोयला घोटाले की जांच में सीबीआइ की 8 मार्च की स्टेटस रिपोर्ट के बारे में सर्वोच्च न्यायालय को गुमराह किया कि इसे सरकार को दिखाया नहीं गया था। रावल ने वाहनवती को एक तल्ख पत्र लिखा, जिसमें उन्होंने उन पर जांच को प्रभावित करने तथा उन्हें बलि का बकरा बनाने का आरोप लगाया। कानून मंत्री द्वारा ली गई बैठक में वाहनवती मौजूद थे, किंतु उन्होंने इस बारे में कोई भी जानकारी होने से इन्कार किया। यह अदालत के समक्ष झूठ बोलने का गंभीर मामला है।
Justice And Equality
वकीलों का दायित्व क्या है? 17 अप्रैल 1949 को मद्रास एडवोकेट्स एसोसिएशन के स्वर्ण जयंती समारोह को संबोधित करते हुए भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश हरिलाल जे. कानिया ने वकीलों की भूमिका को इन शब्दों में परिभाषित किया, ‘वकील के संघों का एक मुख्य उद्देश्य है पेशे के उच्च आचरण को बनाए रखना। मेरे विचार में, वह आचरण तीन उदात्त सिद्धांतों में समाहित है, 1. स्वयं के प्रति सच्चा रहना, 2. मुवक्किल के प्रति सच्चा रहना और 3. अदालत के प्रति सच्चा रहना। मुवक्किल से सभी कागजात एवं आवश्यक तथ्य इकट्ठा करने के बाद आपको अवश्य याद रखना चाहिए कि हालांकि किसी मुकदमे के चलते आप मुवक्किल के प्रवक्ता हैं, लेकिन किसी को आपको वैसा कुछ करने के लिए कहने का अधिकार नहीं हैं जो कानून की नजर में गलत है।
तथ्यों की बात तो दूर, कानून की व्याख्या में भी वकीलों से अपेक्षा की जाती है कि वे अदालत को गुमराह नहीं करेंगे। अंग्रेजी में वकील काउंसेल कहलाना पंसद करते हैं जिसका अर्थ है कि वे मित्र की तरह ईमानदार एवं सच्चा सुझाव देंगे, न कि एक पेशेवर की हैसियत से। जहां तक अटार्नी जनरल का सवाल है तो यह एक संवैधानिक पद है। उसका स्थान बहुत ऊंचा है और वह ऐसे मात्र दो संवैधानिक अधिकारियों में एक है जिन्हें बिना संसद सदस्य हुए संसद को संबोधित करने का अधिकार है। दूसरा अधिकारी है नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक यानी कैग। इंग्लैंड में अटार्नी जनरल का पद राजनीतिक माना जाता है, क्योंकि वह मंत्रिमंडल का सदस्य होता है। भारत में यह पद गैर-राजनीतिक है, किंतु परंपरा यह है कि सरकार के बदलते ही वह अपने पद से इस्तीफा देता है। फिर भी ऐसे कई अवसर आए हैं जब अटार्नी जनरल ने सरकार के पक्ष के विपरीत अपना स्वतंत्र पक्ष रखा। सोली सोराबजी ने अल्पसंख्यक शिक्षण संस्थान के मामले में ऐसा किया। पहले अटार्नी जनरल एमसी सीतलवाड़ ने आचरण का एक उच्च मापदंड रखा। वह तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरू, गृहमंत्री वल्लभभाई पटेल एवं शिक्षामंत्री अबुल कलाम आजाद को छोड़कर अन्य किसी मंत्री से मिलने नहीं जाते थे। विधिमंत्री सहित अन्य मंत्री उनसे परामर्श करने उनके पास आते थे, लेकिन उनके बाद इसमें गिरावट आई। नीरेन डे प्रधानमंत्री के निजी सचिव तक से मिलने चले जाते थे। अब तो अटार्नी जनरल अकसर विधि मंत्री से मिलने जाया करते हैं।
अधिवक्ताओं को महात्मा गांधी से प्रेरणा लेनी चाहिए जिन्होंने सत्य के साथ कभी समझौता नहीं किया। उनके लिए लिखा गया है कि गांधीजी ने कानून को एक बौद्धिक जुगाली के रूप में नहीं लिया ताकि काले को सफेद तथा सफेद को काला किया जा सके, बल्कि एक लिखित आचार संहिता के रूप में लिया। कानून का व्यवसाय उनके लिए न्याय को शिरोधार्य करने का माध्यम बना, न कि न्याय को कानून के जाल में उलझा देने का।
इस आलेख के लेखक सुधांशु रंजन हैं
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