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दिल्ली के कांग्रेसी नेता सज्जन कुमार को दोषमुक्त करार दिए जाने पर बवाल तो होना ही था, क्योंकि वह 1984 के सिख विरोधी दंगे के प्रतीक बन चुके हैं। नरसंहार के 29 साल बीत जाने के बाद भी गुस्सा कम नहीं हुआ है, क्योंकि दोषियों को सजा देने के संबंध में सिखों की मांग पूरी नहीं हुई है। उनकी आहत भावनाओं को दूर करने का कोई रास्ता निकालना चाहिए। दक्षिण अफ्रीका में जब अश्वेत और श्वेत के बीच संघर्ष चल रहा था तो कानून एवं व्यवस्था और मेलमिलाप के लिए एक आयोग बनाया गया था। इसका मकसद मामले को लंबे समय तक लटकाए बगैर सच्चाई को सामने लाना था। हालांकि इस तरह के उपाय से भारत में सिखों की मांगें पूरी नहीं होंगी, लेकिन इससे दंगे का वास्तविक कारण जरूर सामने आएगा। मेल-मिलाप के लिए बनी समिति का काम सजा देना नहीं, बल्कि अपराध के मूल कारणों का पता लगाना होगा। यह सही है कि सिख महज आयोग बना देने से संतुष्ट नहीं होंगे, लेकिन अगर मेलमिलाप नहीं हुआ तो संभव है कि सच्चाई भी सामने नहीं आ पाए!
इस बीच कर्नाटक में चुनाव हो चुके हैं। राज्य में न तो सत्तारूढ़ भाजपा और न ही कांग्रेस के पक्ष में कोई लहर दिखी। बुधवार को स्पष्ट हो जाएगा कि आखिरकार जनता किस दल के पक्ष में है। वैसे एक्जिट पोल में कांग्रेस की सरकार बनने की संभावना जताई जा रही है। भाजपा को सत्ता विरोधी हवा का सामना करना पड़ा है और कांग्रेस को राज्य में खड़ा होने का मौका मिलता दिख रहा है। चुनाव परिणाम जो भी होगा, कर्नाटक के नतीजे के आधार पर दोनों मुख्य पार्टियां देश के माहौल का अंदाजा लगाएंगी, क्योंकि लोकसभा चुनाव समय से पहले होने की संभावना बढ़ती जा रही है। अगर ऐसा नहीं हुआ तो जनता मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान और दिल्ली के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस और भाजपा को आगाह करेगी। इन राज्यों में विधानसभा चुनाव इसी साल होना है, जबकि लोकसभा चुनाव 2014 में निर्धारित है।
कर्नाटक के नतीजों का इंतजार पूरा देश कर रहा है। लोग जानना चाहेंगे कि लिंगायत और वोक्कालिंगा खेमे में बंटे कर्नाटक के वोटर आखिर क्या करते हैं। ऐसा लग रहा है कि पहले की ही तरह इस चुनाव में भी जाति की अहम भूमिका रहेगी तथा अल्पसंख्यक वोटरों का रुझान तयशुदा माना जा रहा है। फिर हर चुनावों की तरह कर्नाटक चुनाव में भी पैसे की अहम भूमिका होगी। इस बात में जरा भी संदेह नहीं कि उम्मीदवार की संपत्ति और जीत में संबंध रहेगा। विधानसभा के पिछले चुनाव में कम से कम नौ उम्मीदवार सिर्फ अपने पैसे के बल पर चुनाव जीते थे। एक उम्मीदवार द्वारा दाखिल ब्योरे के अनुसार उसके पास 690 करोड़ की संपत्ति थी। कर्नाटक में उम्मीदवारों की सूची पर सरसरी निगाह डालने से पता चल जाता है कि किस तरह पार्टियां अधिक से अधिक धन्ना सेठों को अपना उम्मीदवार बना रही हैं। दोनों पार्टियों ने शराब लॉबी से लेकर खदान माफिया और फिर रियल इस्टेट के मालिकों को टिकट दिया है। कांग्रेस और भाजपा के कम से कम दस-दस उम्मीदवारों के पास एक सौ करोड़ से अधिक की संपत्ति है। इससे मेरे इस विश्वास को बल मिलता है कि चुनाव आयोग के तमाम प्रयासों के बावजूद चुनाव में पैसे का खेल बढ़ता जा रहा है। हम एक दशक से ज्यादा लंबे समय से इस खेल को देख रहे हैं और अगर भविष्य में और ज्यादा धनी लोग चुनाव नहीं लड़ेंगे तो यह आश्चर्य की बात होगी। फिर भी मुसलमान वोटरों की अलग अहमियत अभी भी बनी रहेगी। समझने वाली बात है कि कर्नाटक में सभी दलों के बड़े नेताओं ने जमकर चुनाव प्रचार किया। कांग्रेस की ओर से सोनिया गांधी, राहुल गांधी और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह स्टार प्रचारक रहे तो भाजपा ने पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह, अरुण जेटली और लालकृष्ण आडवाणी को अपने पक्ष में वोट जुटाने के काम में उतारा। भाजपा के स्टार प्रचारक रहे गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी। उन्होंने राज्य में प्रचार के दौरान खूब तालियां बटोरीं। उन्होंने कट्टर हिंदूवादी राह अपनाने के संकेत दिए।
कर्नाटक में भाजपा के पूरे शासनकाल में पार्टी की छवि भ्रष्टाचार और आपराधिक मामलों के कारण धूमिल हुई। इसके अलावा पार्टी में व्याप्त अंतर्कलह है। इसी अंतर्कलह के कारण पूर्व मुख्यमंत्री बीएस येद्दयुरप्पा को भाजपा छोड़कर अपनी अलग पार्टी कर्नाटक जनता पक्ष बनानी पड़ी। संभव है येद्दयुरप्पा बहुत अधिक सीटें नहीं जीत सकें, लेकिन भाजपा को तो वह निश्चित तौर पर नुकसान पहुंचाएंगे। इसी तरह पूर्व मुख्यमंत्री एचडी कुमारस्वामी हैं। वह पिछले पांच साल से सत्ता से बाहर हैं, लेकिन वोक्कालिंगा बहुल हसन जिले में उनका अच्छा-खासा प्रभाव है। वह कांग्रेस और भाजपा, दोनों के वोट बैंक में घुसपैठ करने की ताकत रखते हैं। कुमारस्वामी ने बहुत ही चतुराई के साथ चाल चली है। उन्होंने बहुत सारे ऐसे ‘प्रवासियों’ को टिकट दिए थे जिन्हें विभिन्न दलों ने टिकट नहीं दिया। हालांकि जनता दल (सेक्युलर) और कुमारस्वामी का प्रभाव पुराने मैसूर क्षेत्र तक ही सीमित है।
सबसे दुखद बात यह है कि किसी भी छोटे या बड़े दल ने काम का कोई मुद्दा चुनाव में नहीं उठाया है। इसके बजाए हर कोई सस्ते चावल, छात्रों के लिए लैपटॉप और किसानों की कर्ज माफी जैसे लुभावने पैकेजों की बात कर रहा है। हर चुनाव के पहले वोटरों को लुभाने के लिए इस तरह का हथकंडा अपनाना फैशन बन चुका है, लेकिन लगता है कि 224 सदस्यों वाली विधानसभा में 113 का साधारण बहुमत हासिल करना कांग्रेस के लिए मुश्किल होगा। भाजपा तो इसके काफी पीछे नजर आ रही है। यदि ऐसा हुआ तो कांग्रेस को सरकार बनाने के लिए अन्य लोगों की जरूरत पड़ सकती है। यह भी संभव है कि कुमारस्वामी फिर किंगमेकर बनकर उभरें। फिलहाल चुनावी दौड़ में कांग्रेस आगे दिख रही है। अगर कांग्रेस सरकार बनाने में कामयाब होती है तो यह एक तरह की उपलब्धि होगी, क्योंकि कर्नाटक बराबर ही राष्ट्रीय धारा के विपरीत जाता रहा है। कनार्टक की जनता ऐसी पार्टियों को सत्ता सौंपती रही है जो केंद्र में सत्तारूढ़ नहीं होतीं। यह परिपाटी आपातकाल के बाद के 1977 चुनाव से चली आ रही है। इस चुनाव में संभवत: इस परिपाटी का बदलना आश्चर्य भरा होगा।
इस आलेख के लेखक कुलदीप-नैयर हैं
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