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नए पड़ाव पर पाकिस्तान

जागरण मेहमान कोना
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Pakistan Elections 2013

इसकी संभावना कम ही है कि नवाज शरीफ ने रामायण पढ़ी होगी, लेकिन यदि उन्होंने ऐसा किया होता तो उन्हें यह अनुभूति अवश्य होती कि लगभग 14 वर्ष का उनका वनवास अब समाप्त होने वाला है और वह जल्द ही इस्लामाबाद में उसी प्रधानमंत्री निवास में अपना कब्जा जमाएंगे जहां से 1999 में पाकिस्तानी सेना ने उन्हें उखाड़ फेंका था। नियति का खेल देखिए जिन परवेज मुशर्रफ ने शरीफ को सत्ता से बेदखल किया था वह आज इस्लामाबाद में ही कुछ किलोमीटर की दूरी पर अपने फार्म हाउस में नजरबंद हैं। मुशर्रफ जरूर सोच रहे होंगे कि काल किस तरह सभी की नियति का निर्धारण करता है। पाकिस्तान में हुए आम चुनाव के नतीजे कालचक्र की इसी श्रेष्ठता का बखान करते हैं, खासकर राजनीतिक दलों और राजनेताओं के ऊपर काल का यह प्रकोप कुछ ज्यादा ही नजर आता है। नेशनल असेंबली और पंजाब, सिंध, खैबर-पख्तून और बलूचिस्तान के रूप में चार राज्यों की विधानसभाओं के लिए 2013 के चुनाव तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान और दूसरे कट्टरपंथी इस्लामिक समूहों के हिंसक हमलों के साये में संपन्न हुए। पूरे चुनाव में करीब 150 लोग मारे गए। विशेषकर खैबर-पख्तून में चुनाव के पहले खून-खराबे का दौर कहीं अधिक खौफनाक रूप में सामने आया। पीपीपी और एएनपी सरीखे वे दल इस हिंसा के निशाने पर रहे जिन्होंने कट्टरपंथी समूहों के खिलाफ कड़ा रुख प्रदर्शित किया था। इसके परिणाम स्वरूप ये दल चुनावी रैलियों का आयोजन नहीं कर सके और उनके नेता अपने साथ-साथ लोगों की सुरक्षा के प्रति चिंतित होकर जनसभाएं नहीं कर सके!


एक समय ऐसी स्थिति भी महसूस की गई कि लोग मत देने में भय का अनुभव करेंगे, लेकिन यह उल्लेखनीय है कि पाकिस्तानी जनता व्यापक रूप से कट्टरपंथी समूहों को धता बताने के लिए जरूरी साहस का परिचय दिया। राष्ट्रीय स्तर पर मतदान का प्रतिशत अभूतपूर्व रहा। मतदान वाले दिन कराची में कुछ समस्याएं भी नजर आईं। इसके साथ ही कुछ प्रशासनिक कमजोरियों के कारण भी मतदान पर असर पड़ा। कुल मिलाकर चुनाव विश्वसनीय रहे। पहले ही यह अपेक्षा की जा रही थी कि नवाज शरीफ के नेतृत्व वाली पाकिस्तान मुस्लिम लीग (एन) देश के सबसे बड़े और महत्वपूर्ण राज्य में अपने मजबूत आधार के बल पर सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरेगी। पाकिस्तान के ज्यादातर राजनीतिक पंडितों ने हालांकि यह महसूस किया था कि शरीफ को प्रभावशाली साझा सरकार गठित करने के लिए दूसरे दलों से अच्छे-खासे समर्थन की जरूरत होगी। इस तरह के आकलनों के विपरीत पीएमएल (एन) ने काफी बेहतर प्रदर्शन किया और अब तो ऐसा नजर आ रहा है कि वह अपने दम पर केंद्र में सरकार गठित करने में सफल रहेगी अथवा उसका काम मुट्ठी भर निर्दलीयों के समर्थन से चल जाएगा। पाकिस्तानी कानून के अनुसार निर्दलीय चुनाव नतीजे आने के तीन दिनों के भीतर किसी दल में शामिल हो सकते हैं। अगर शरीफ ने समझदारी की तो वह सिंध और खैबर के कुछ दलों को अपने साथ जोड़ना चाहेंगे। उन्होंने पंजाब में खास तौर पर अच्छा प्रदर्शन किया है और बलूचिस्तान में भी उन्हें ठीक-ठाक सफलता मिली है। इस तरह के नतीजों से पाकिस्तान स्थिरता की आशा कर सकता है, क्योंकि वर्तमान समय वह अपने इतिहास के संभवत: सबसे कठिन दौर से गुजर रहा है।


Pakistan Politics 2013

इन चुनावों में दो अन्य महत्वपूर्ण बिंदु उभरे हैं। सत्ताधारी पीपीपी को गहरे आघात का सामना करना पड़ा। इस दल को वस्तुत: सिंध तक सीमित कर दिया गया। कुशासन और भ्रष्टाचार के आरोपों ने उसके जनाधार पर गहरा असर डाला। पीपीपी की सरकार को पूरे पांच वर्ष तक चलाने में जरदारी ने उल्लेखनीय राजनीतिक कौशल और चतुराई का परिचय दिया, लेकिन चुनाव में जीत दिलाने के लिए यह काफी सिद्ध नहीं हुआ। उनके पुत्र बिलावल को भविष्य में अपनी पार्टी की तस्वीर सुधारने के लिए कड़ी मेहनत करनी होगी। एएनपी के खैबर प्रांत में सिमट जाने से न केवल इमरान खान की लोकप्रियता प्रमाणित होती है, बल्कि इससे पठानों के बड़े समूह में धार्मिक कट्टरपंथियों के उभार का प्रभाव भी स्पष्ट होता है।


जहां तक इमरान खान का सवाल है तो पहले यह माना जा रहा था कि उन्हें बीस के करीब सीटें मिलेंगी और वह चुनावों में खास असर नहीं डाल सकेंगे, लेकिन जैसे-जैसे चुनाव करीब आते गए और उनकी चुनावी रैलियां बड़ी होती गईं, शहरों के शिक्षित युवाओं तथा मध्यम वर्ग से जुड़े बुद्धिजीवियों ने ऐसी तस्वीर दिखानी शुरू कर दी जैसे वह चुनाव के विजेता के रूप में उभर सकते हैं। इमरान ने जबरदस्त प्रचार किया और चुनाव के ऐन पहले एक दुर्घटना के भी शिकार हो गए। इस दुर्घटना के बाद उनके पक्ष में सहानुभूति की लहर चलने की बातें भी सामने आईं। इसके साथ ही ऐसे संकेत भी नजर आए कि पाकिस्तान की सेना उन्हें अप्रत्यक्ष समर्थन दे रही है। अंत में अपेक्षाकृत बेहतर प्रदर्शन के बावजूद वह राष्ट्रीय स्तर पर उस स्थान तक नहीं पहुंच सके जिसकी कल्पना की जा रही थी। नवाज शरीफ का बिरादरी नेटवर्क सब पर भारी पड़ गया। पाकिस्तान के चुनावों में बिरादरी उतनी ही महत्वपूर्ण है जितनी अपने देश के चुनावों में जाति। प्रधानमंत्री कार्यालय में अपनी जिम्मेदारी संभालते ही नवाज शरीफ की प्राथमिकताएं होंगी सेना तथा राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी के साथ कामकाजी रिश्ते कायम करना। जरदारी अपने कमजोर हाथ के बावजूद पूरी कीमत वसूल करना चाहेंगे। सीनेट में पीपीपी और उसके सहयोगियों का नियंत्रण बना रहेगा। संसद के सही तरह संचालन और महत्वपूर्ण विधेयकों को पारित कराने के लिए उनका समर्थन नवाज शरीफ के लिए महत्वपूर्ण होगा। शरीफ ने कहा है कि संविधान का सभी को सम्मान करना चाहिए। यह स्प्ष्ट संकेत है कि आदर्श रूप से वह चाहेंगे कि सेना निर्वाचित सरकार की श्रेष्ठता का सम्मान करे।


शरीफ ने कारगिल प्रकरण की जांच कराने की बात भी कही है। वह इसके लिए पूरी तरह मुशर्रफ को जिम्मेदार मानते हैं। आसार इसी के हैं कि सेना से संबंधित मामलों में शरीफ सतर्क ही रहेंगे। वह पाकिस्तान की सुरक्षा नीतियों पर सेना के नियंत्रण को चुनौती नहीं देंगे, खासकर भारत, अफगानिस्तान और अमेरिका से संबंधित नीतियों के मामले में। इसके साथ ही सेना पाकिस्तान के नाभिकीय हथियारों पर अपने नियंत्रण को समाप्त नहीं करने वाली। सेना निर्वाचित प्रधानमंत्री के रूप में उन्हें सम्मान तो देगी, लेकिन कारगिल जांच के पक्ष में नहीं होगी और न ही मुशर्रफ के खिलाफ बदले की कार्रवाई की इजाजत देगी। जो भी हो, शरीफ को पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था पर विशेष ध्यान देना होगा। अगर वह ऐसा नहीं करते हैं तो देश की समस्याएं उनकी लोकप्रियता को चंद माह में ही हवा में उड़ा देंगी। जहां तक भारत का सवाल है तो यह स्पष्ट है कि शरीफ नई दिल्ली से रिश्ते सुधारना चाहते हैं। वह भले ही नाटकीय कदम उठाने की सोच रहे होंगे, लेकिन क्या सेना उन्हें ऐसा करने देगी? व्यापार और व्यक्ति से व्यक्ति के संपर्क के मामले में कुछ सुधार हो सकता है, लेकिन जटिल और विवादास्पद मामलों में किसी ठोस प्रगति की आशा नहीं है।


इस आलेख के लेखक विवेक काटजू हैं


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