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आरटीआइ का बेजा डर

जागरण मेहमान कोना
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राजनीतिक दलों को सूचना अधिकार के दायरे में लाने के केंद्रीय सूचना आयोग (सीआइसी) के फैसले के खिलाफ भारत की राजनीतिक पार्टियों में गजब की एकजुटता देखने को मिली है। राजनेता पूरी तरह भ्रम के शिकार हैं और वे इस मुद्दे पर बार-बार अपना दृष्टिकोण बदल रहे हैं। पहले अधिकांश दलों ने इस फैसले का स्वागत किया और फिर बाद में इसे लोकप्रियता के लिए देश के लोकतांत्रिक ढांचे को तोड़ने का सूचना आयोग का एडवेंचर करार दे दिया। राजनेता सूचना के अधिकार कानून का कखग जाने बिना ही इस फैसले पर टिप्पणी कर रहे हैं, जबकि उन्होंने ही संसद में बहस के बाद इसे पारित किया था। बेहतर होगा कि राजनेता सीआइसी के फैसले पर बयानबाजी करने से पहले आरटीआइ एक्ट के प्रावधानों का अध्ययन करें। वे केवल आरटीआइ एक्ट की धारा 2(एच)(डी)(आइ) पढ़ें, जिसमें परिभाषित किया गया है कि एक सार्वजनिक इकाई वह है जिस पर सरकार का स्वामित्व या नियंत्रण हो या फिर उसका सरकार द्वारा पर्याप्त रूप से वित्त पोषण किया जाता हो। इस प्रावधान से ही राजनीतिक दल पता लगा सकते हैं कि वे आरटीआइ के दायरे में आते हैं या नहीं।


नैतिकता का तकाजा है कि यदि राजनीतिक दल इस फैसले का विरोध करते हैं तो उन्हें तत्काल सरकार द्वारा रियायती मूल्य या लीज पर उपलब्ध कराए गए विशाल बंगले त्याग देने चाहिए। उन्हें यह शपथपत्र भी देना चाहिए कि वे दूरदर्शन और रेडियो पर मिलने वाले समय, वोटर लिस्ट, करों में छूट आदि सुविधाएं नहीं लेंगे। राजनीतिक दलों द्वारा इस फैसले के संभावित परिणामों पर जताई गई आशंकाएं भी आरटीआइ के प्रावधानों का अध्ययन न करने का नतीजा है। पारदर्शिता कानून नागरिकों को यह अधिकार नहीं देता कि वे कोई भी सवाल पूछ लें। अनुच्छेद 8(1) में दस उपबंध हैं, जो राजनीतिक दलों को सूचना न देने का मजबूत आधार प्रदान करते हैं। अनुच्छेद 7(9) किसी सार्वजनिक प्रतिष्ठान को उस दशा में जनता को सूचना देने से रोकता है अगर सार्वजनिक इकाई के संसाधनों के प्रवाह में असंगति की संभावना हो। अनुच्छेद 4(1)(बी) के तहत राजनीतिक दल अपनी वेबसाइट पर अधिक से अधिक जानकारी देकर भारी संख्या में आने वाली आरटीआइ याचिकाओं को सीमित कर सकते हैं।


यह दलील दी जा रही है कि अब राजनीतिक दलों की चुनाव आयोग के साथ-साथ केंद्रीय सूचना आयोग के प्रति भी जवाबदेही हो जाएगी। यह भी मिथ्या धारणा है। सूचना का अधिकार कानून राजनीतिक दलों को जनता के प्रति जवाबदेह बनाता है, न कि सीआइसी के प्रति। राजनीतिक दलों द्वारा यह भी तर्क दिया जा रहा है कि सूचना के अधिकार के दायरे में आने के बाद उन्हें दल की बोर्ड मीटिंग या फिर अन्य तमाम बैठकों की कार्यवाही का खुलासा भी करना पड़ेगा। यह भी गलत धारणा है। सूचना के अधिकार के दायरे में मौखिक चर्चा नहीं आती। इसमें वही गतिविधियां आती हैं जिनका ऑडियो-वीडियो रिकॉर्ड हो। चूंकि राजनीतिक दलों की आंतरिक बैठकों की अकसर कोई ऑडियो-वीडियो रिकॉर्डिग नहीं होती, इसलिए वे अपनी रणनीति या अन्य मुद्दों पर चर्चा का खुलासा करने के लिए बाध्य नहीं हो जाते। राजनीतिक दलों ने यह संदेह भी व्यक्त किया है कि उनसे उम्मीदवारों के चयन के बारे में सवाल पूछे जाएंगे। इस आशंका में भी कोई सार नहीं है। आरटीआइ एक्ट में किसी फैसले के कारण पूछने का कोई प्रावधान नहीं है। अब जरा इस फैसले के सकारात्मक पहलुओं पर गौर करें, जिनसे पूरे देश और जनता को लाभ होगा। सूचना के अधिकार के तहत चुनाव घोषणापत्र के मसौदे के संदर्भ में फाइलों में की गई टिप्पणियों की मांग की जा सकती है। पिछले एक दशक से चुनाव आयोग द्वारा चुनाव सुधार लागू करने के बार-बार किए आग्रहों के बावजूद राजनीतिक दल इस मुद्दे पर टककाऊ रवैया अपना रहे हैं। अगर राजनीतिक दल चुनाव सुधारों के प्रति गंभीर होते तो राजनीतिक परिदृश्य बिल्कुल अलग होता। इन सुधारों में ईवीएम के माध्यम से किसी भी उम्मीदवार को वोट न देने का अधिकार भी शामिल है। यानी सभी उम्मीदवारों को नकारने का अधिकार। इसमें मतदाताओं को एक बेहतर विकल्प मिलता है। फिलहाल राजनीतिक दलों द्वारा चुने गए उम्मीदवारों में से किसी एक को वोट देने का मतदाताओं के पास विकल्प होता है, चाहे वह किसी को भी न चुनना चाहे। अगर चुनाव आयोग द्वारा चुनाव सुधार के लिए बार-बार की गई अनुशंसाओं पर ध्यान दिया गया होता तो अब राजनीतिक दलों के सूचना अधिकार कानून के दायरे में आने की नौबत ही न आती।


कुछ राजनेताओं ने अनर्गल टिप्पणियां की हैं कि क्या राजनीतिक दल किराना दुकान हैं, जो इन पर सूचना का अधिकार लागू किया जा रहा है। उनकी जानकारी के लिए बता दें कि निजी उद्यम होने के नाते दुकानों पर आरटीआइ कानून लागू ही नहीं होता। क्या तमाम सार्वजनिक प्रतिष्ठान जिनमें राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, राज्यसभा, लोकसभा, सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट भी शामिल हैं, एक किराना दुकान के तौर पर काम कर रहे हैं? बता दें कि कुल आरटीआइ याचिकाओं में से करीब 60 प्रतिशत खुद सरकारी कर्मचारियों ने अपनी नौकरी से जुड़े पहलुओं की जानकारी के लिए डाली हैं। इसी प्रकार राजनीतिक दलों को सूचना अधिकार कानून के दायरे में लाने से इन दलों के जमीन से जुड़े कार्यकर्ता जान सकेंगे कि क्या उनके दल में आंतरिक लोकतंत्र लागू है। सही ढंग से तैयार की गई आरटीआइ याचिकाएं उन राजनेताओं के लिए जरूर मुसीबत साबित होंगी, जो राजनीति को अपनी दुकान मान बैठे हैं और माल कूट रहे हैं।

इस आलेख के लेखक सुभाषचंद्र अग्रवाल हैं

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