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छत्तीसगढ़ में नक्सली नरसंहार के बाद आरोप-प्रत्यारोपों और राजनीतिक रोटियां सेंकने का चिर-परिचित सिलसिला चल पड़ा है। कोई स्थानीय जनता के बीच पुलिस की साख बढ़ाने तो कोई खुफिया सूचनाएं जुटाने और सुरक्षा बलों के बीच तालमेल पर जोर दे रहा है। यह भी कहा जा रहा है कि नक्सलवाद को केवल कानून व्यवस्था के रूप में न देखकर सामाजिक-आर्थिक समस्या के रूप में देखना होगा। आदिवासी क्षेत्रों में नक्सलवाद के प्रसार की मूल वजह गरीबी की व्यापकता और विकास का न होना है। यही कारण है कि नक्सलियों के काडर में कोई कमी नहीं आ रही है।
देखा जाए तो नक्सलवाद की जड़ प्राकृतिक संसाधनों की लूट और रोजगार विहीन विकास दर में मिलेगी। नक्स लवाद से प्रभावित इलाके खनिज संपदा से भरपूर हैं, लेकिन इन खनिजों के दोहन से होने वाले मुनाफे में स्थानीय लोगों को समुचित हिस्सा नहीं मिला। फिर वैध-अवैध खनन से यहां के पर्यावरण का विनाश हुआ जिससे आदिवासियों के जीविकोपार्जन के परंपरागत रास्ते बंद हो गए।
उदारीकरण के दौर में खनिज संसाधनों के दोहन ने संस्थागत लूट का रूप ले लिया। इस दौरान उद्योगपतियों-सरकारों-ठेकेदारों की तिकड़ी ने जमकर मुनाफा कमाया। इसी का नतीजा रहा कि ऊंची विकास दर के दौर में नक्सलवाद के प्रभाव और दायरे में अभूतपूर्व बढोतरी हुई। रही-सही कसर खेती-किसानी की बदहाली ने पूरी कर दी। देश के 54 फीसद लोगों को जीविका मुहैया कराने वाली खेती के घाटे का सौदा बनने से करोड़ों किसान गरीबी के बाड़े में धकेल दिए गए।
सेवा क्षेत्र केंद्रित विकास नीति ने भी बेरोजगारी-असमानता बढ़ाने का काम किया क्योंकि इसमें रोजगार सृजन की दर बहुत ही धीमी होती है। इसी का परिणाम है कि ऊंची विकास दर के बावजूद विषमता बढ़ती गई है। उदाहरण के लिए वर्ष 2000 में जहां भारत के सकल घरेलू उत्पाद में खरबपतियों का हिस्सा दो फीसद था, वहीं अब यह बढ़कर 22 फीसद हो गया है। एनएसएसओ के सर्वे के मुताबिक ग्रामीण भारत की सबसे गरीब 10 फीसद आबादी प्रतिमाह औसतन 503.49 रुपये खर्च कर रही है। वहीं शहरों में रहने वाली सबसे गरीब 10 फीसद आबादी का महीने भर का खर्च 702.26 रुपये है यानी रोज 23.40 रुपये।
साफ है कि गरीबी, बेरोजगारी और प्राकृतिक संसाधनों पर निजी क्षेत्र का बढ़ता वर्चस्व नक्सलवाद को खाद-पानी दे रहे हैं। रोजगार सृजन की धीमी रफ्तार के साथ आय का वितरण समान नहीं रहा। इससे असमानता तेजी से बढ़ी। इसकी पुष्टि अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन की मजदूरी रिपोर्ट भी करती है। इसके मुताबिक 2008 से 2011 के बीच भारत में वास्तविक मजदूरी सिर्फ एक फीसद बढ़ी जबकि श्रमिक उत्पादकता में 7.6 फीसद की बढोतरी हुई है। इसके विपरीत चीन में 2008 से 2011 के दौरान जहां वास्तविक मजदूरी 11 फीसद बढ़ी वहीं श्रम उत्पादकता में नौ फीसद की ही बढोतरी दर्ज की गई। दरअसल उदारीकरण के दौर में शिक्षा, स्वास्थ्य, परिवहन, जल-जंगल-जमीन के निजीकरण से जहां कार्पोरेट जगत को अकूत मुनाफा कमाने के मौके मिले, वहीं गरीबों को मुफ्त में या नाममात्र की कीमत पर मिलने वाले साधन उनकी पहुंच से दूर हो गए। ऐसे में भारत को रोजगार बढ़ाने वाली विकास नीति अपनानी होगी।
आज खाद्य प्रसंस्करण एवं विपणन, शिक्षा, स्वास्थ्य, सिंचाई, बिजली व अन्य ग्रामीण आधारभूत ढांचे में भारी निवेश की जरूरत है, लेकिन सरकार इस ओर से मुंह फेरे हुए है। विशाल कार्यशील आबादी के कारण भारत दुनिया की विनिर्माण धुरी बन सकता है, लेकिन यह तभी संभव होगा जब वह बड़े पैमाने पर कौशल विकास और प्रशिक्षण कार्यक्रम चलाए जाएं। दुर्भाग्यवश सरकारों का ध्यान इन टिकाऊ उपायों की ओर न होकर मनरेगा, भोजन का अधिकार जैसी दान-दक्षिणा वाली स्कीमों पर है। ऐसे में नक्सलवाद के प्रसार में इजाफा हो तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए।
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