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छोटे राज्यों के लाभ

जागरण मेहमान कोना
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महाराष्ट्र और गुजरात के विभाजन के सार्थक परिणाम सामने आए हैं। आज दोनों राज्य फल-फूल रहे हैं। पंजाब और हरियाणा का भी ऐसा ही परिणाम रहा है। आज हरियाणा का नाम कृषि, उद्योग और शिक्षा के क्षेत्रों में बुलंदी पर है, जबकि संयुक्त पंजाब के दौर में यह क्षेत्र पिछड़ा हुआ था। दस वर्ष पहले छत्तीसगढ़, झारखंड एवं उत्तराखंड का निर्माण हुआ था। इनमें छत्तीसगढ़ तथा उत्तराखंड का परिणाम अच्छा रहा है, जबकि झारखंड का कमजोर रहा है। इतिहास को देखें तो पांच विभाजनों में चार का नतीजा अच्छा रहा है। 1छोटे राज्यों का सबसे बड़ा लाभ क्षेत्रीय समस्याओं के समाधान का है। जैसे पुराने पंजाब की सरकार के लिए गुड़गांव और फरीदाबाद की समस्याओं पर ध्यान देना कठिन था। उसका ध्यान चंडीगढ़, जालंधर और अमृतसर की ओर रहता था। हरियाणा के अलग होने के बाद इन जिलों के विकास पर विशेष ध्यान दिया गया है। अथवा संयुक्त उत्तर प्रदेश की सरकार के लिए उत्तराखंड की पहाड़ियों पर ध्यान देना कठिन था।

कांग्रेस और न्यायपालिका


उत्तराखंड में कृषि का रूप मैदान की तुलना में भिन्न है। यहां समस्या सड़क की है न कि चकबंदी की। यहां सिंचाई ट्यूबवेल से नहीं, बल्कि नदी से होती है। उत्तर प्रदेश के साथ जुड़े रहने पर राच्य के सिंचाई मंत्री का ध्यान ट्यूबवेल पर ज्यादा रहता था। इससे उत्तराखंड में कृषि की संभावनाएं पिछड़ रही थीं। अलग राज्य होने से उत्तराखंड के मंत्री इन जरूरतों पर ध्यान दे रहे हैं। बड़े राज्यों के पिछड़े इलाकों को दोहरा नुकसान होता है। राज्य सरकार उनकी समस्याओं पर ध्यान नहीं दे पाती हैं। साथ-साथ केंद्र से मिलने वाली सुविधाओं से भी वे वंचित रह जाते हैं। जैसे संयुक्त उत्तर प्रदेश के पहाड़ी क्षेत्रों को स्पेशल पैकेज मिलना संभव नहीं था। स्पेशल पैकेज संपूर्ण राज्य को दिया जाता है। विभाजन के बाद राज्य को स्पेशल पैकेज मिला है और राच्य के मैदानी हिस्से में तमाम उद्योग लगे हैं। उत्तराखंड के दूरदराज के इलाकों पर भी अलग राज्य बनने के बाद विशेष ध्यान देना संभव हो सका है। छोटे राज्यों का विशेष लाभ प्रशासनिक प्रयोगों का है। देश में 28 राज्य हैं। किसी एक राज्य द्वारा सफल प्रयोग होने पर इसे संपूर्ण देश में लागू किया जा सकता है। जैसे गरीबी रेखा के नीचे रहने वालों को सस्ता अनाज उपलब्ध कराना और रोजगार गारंटी को पहले किन्हीं राज्यों में लागू करना। सफल होने पर आज इन नीतियों को पूरे देश में लागू किया गया है। छोटे राज्यों में प्रयोग करना आसान होता है।

संकटों का उजाला


राज्यों की संख्या अधिक हो तो भी प्रयोग की संभावना अधिक होती है। जिस प्रकार संयुक्त परिवार में एक व्यक्ति वित्तीय क्षेत्र में परिवार को दिशा देता है और दूसरा व्यक्ति शिक्षा के क्षेत्र में, उसी प्रकार राज्यों के द्वारा अलग-अलग क्षेत्रों में देश को दिशा दी जाती है। दूसरी तरफ छोटे राज्यों के कुछ नुकसान हैं। सबसे बड़ी समस्या क्रोनी पूंजीवाद की है। छोटे राज्यों के मंत्रियों के लिए बड़ी कंपनियों के सामने खड़े रह पाना कठिन हो जाता है। छत्तीसगढ़ में खनन के क्षेत्र में बड़ी कंपनियों विद्यमान हैं। उत्तराखंड में हाइड्रोपावर के क्षेत्र में ऐसा ही है। इन कंपनियों के लिए छोटे राज्य के मंत्रियों एवं अधिकारियों को खरीद लेना आसान होता है। इन राज्यों की सरकारों को ये कंपनियां ही चलाती दिखती हैं। जिलाधिकारी महोदय को कंपनी के मुख्याधिकारी के सम्मुख गिड़गिड़ाते देखा जा सकता है। कई बड़ी कंपनियों की वार्षिक बिक्री छोटे राज्यों के बजट से ज्यादा होती है। जिस प्रकार रिक्शेवाले को बस के हॉर्न का सहज ही सम्मान करना होता है, उसी प्रकार छोटे राज्य के मंत्री एवं अधिकारी सहज ही बड़ी कंपनियों के बताए अनुसार कार्य करने लगते हैं। दूसरी समस्या प्रशासनिक क्षमता की है। राज्य को सवास्थ्य, वित्त, खेल आदि क्षेत्रों में सक्षम अधिकारियों की जरूरत होती है। बड़े राज्य के पास बड़ी संख्या में अधिकारी होते हैं। इनमें हर क्षमता के अधिकारी उपलब्ध हो जाते हैं। छोटे राज्यों में कम संख्या में अधिकारी होने से विभिन्न क्षेत्रों के लिए उपयुक्त अधिकारी उपलब्ध नहीं हो पाते। यही बात यूनिवर्सिटी तथा शेध संस्थानों पर भी लागू होती है।


बड़े राज्य के लिए कृषि, तकनीक तथा संस्कृत विश्वविद्यालयों की स्थापना करना संभव होता है। पूवरेत्तर के छोटे राज्यों के लिए इस प्रकार का निवेश करना संभव नहीं होता है। 1समग्र दृष्टि से देखा जाए तो छोटे राज्य ही उत्तम दिखते हैं, बशर्ते बहुत छोटे न हो जाएं। जन संपर्क, क्षेत्रीय संतुलन, जन सहमति एवं प्रयोगों की दृष्टि से छोटे राज्य सफल हैं। छोटे राज्यों की मुख्य समस्या प्रशासनिक हल्केपन की है। अत: राज्य इतने छोटे नहीं होने चाहिए कि प्रशासन के लिए उपयुक्त अधिकारी ही उपलब्ध न हो सकें। इस दृष्टि से आंध्र प्रदेश का विभाजन सही ही दिखता है। सरकार को महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्यों के विभाजन पर भी पहल करनी चाहिए।1प्रतीत होता है कि छोटे राज्यों का विरोध मुख्यत: उस वर्ग द्वारा किया जाता है जो दूसरे कमजोर क्षेत्र का शोषण करना चाहते हैं। जैसे बिहार के लिए झारखंड की उपयोगिता मुख्यत: खनिजों द्वारा मिलने वाले राजस्व की थी। संयुक्त बिहार की सरकार उस राजस्व को छोड़ना नहीं चाहती थी। अथवा संयुक्त उत्तर प्रदेश के लिए पहाड़ी क्षेत्रों की उपयोगिता मुख्यत: गर्मी के दिनों में दौरे की थी। अधिकारीगण छुट्टी मनाने के लिए पहाड़ में दौरा लगवा लिया करते थे। 1मूल आर्थिक गतिविधियों की दृष्टि से छोटे अथवा बड़े राज्यों में कोई अंतर नहीं है। देश के सब राज्य एक बाजार से जुड़े हुए हैं। एक हिस्से में बने माल को दूसरे हिस्से में जाने की छूट है। एक राज्य के नागरिक को दूसरे राज्य में बसने की छूट है। राज्य के विभाजन से माल एवं श्रम के आवागमन पर तनिक भी प्रभाव नहीं पड़ता है। झारखंड जैसे अपवाद को छोड़ दें तो छोटे राज्य सफल हैं और हमें दूसरे बड़े राज्यों के विभाजन पर सकारात्मक पहल करनी चाहिए, लेकिन गोरखालैंड जैसे अति छोटे राज्य से परहेज करना चाहिए।

इस आलेख के लेखक डां. भरत झुनझुनवाला हैं

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