Poverty Line In India: देश में एक गरीबी रेखा के स्थान पर दो तरह की रेखाएं
जागरण मेहमान कोना
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निर्धनता का विचित्र निर्धारण
मेरे घर में काम करने वाली ने एक दिन पूछा, ‘साहबजी, टीवी पर आ रहा है कि एक हजार रुपये से ज्यादा कमाने वाले गरीब नहीं हैं। क्या यह सच है? मैं तो आपके घर में काम करके पांच हजार रुपये कमा लेती हूं। फर्श की सफाई करती हूं, बरतन साफ करती हूं। अगर मैं अमीर होती तो फिर झाड़ू-पोंछा क्यों करती?’ मेरे ऑफिस में एक हेल्पर था। अब वह दिल्ली विश्वविद्यालय में गार्ड है। उसने कहा, ‘सर जी, मैं महीने में छह हजार कमाता हूं। मेरे परिवार में पत्नी और दो बच्चे हैं। मैं कमला नगर में एक दड़बेनुमा कमरे में रहता हूं। मुङो पता है कि घर का खर्चा चलाना कितना मुश्किल हो रहा है। मेरी पत्नी को अस्थमा है और बेटे को दिल की बीमारी। अगर मेरे पास बीपीएल कार्ड नहीं होगा तो मैं अस्पताल में उनका इलाज नहीं करा पाऊंगा और वे मर जाएंगे। और देखो, यह सरकार कहती है कि मैं गरीब नहीं हूं..’ मैंने किसी तरह उनका गुस्सा शांत किया ही था कि एक और झटका लगा। नेशनल सैंपल सर्वे ऑर्गेनाइजेशन (एनएसएसओ) की ओर से 2011-12 वर्ष के उपभोग खपत के आंकड़े जारी हुए। इनके अनुसार गांव में 2886 रुपये प्रतिमाह खर्च करने वाला देश के शीर्ष पांच प्रतिशत लोगों की श्रेणी में आ जाएगा। शहरी क्षेत्र के लिए यह संख्या 6383 रुपये प्रतिमाह है। यह आंकड़ा मुङो और आपको भी मुकेश अंबानी, रतन टाटा, नारायण मूर्ति की श्रेणी में ले आता है। है न खुशी मनाने का समय। हालांकि मेरे घर काम करने वाली और हेल्पर, दोनों ही देश के शीर्ष पांच प्रतिशत लोगों की श्रेणी में आने से जरा सा चूक गए। पर उनके लिए भी खुश होने का मौका है। वे सबसे अधिक आमदनी वाले देश के दस प्रतिशत लोगों में शामिल हैं। एनएसएसओ के अनुसार गांवों में 2296 और शहर में 4610 रुपये प्रति माह खर्च करने वाले देश के शीर्ष दस प्रतिशत की श्रेणी में आते हैं।
मुङो हैरानी होती है कि अगर एक दड़बेनुमा कमरे में रहने वाला गार्ड देश के शीर्ष दस प्रतिशत लोगों की श्रेणी में आ सकता है तो शेष 90 प्रतिशत आबादी की हालत क्या होगी? सरल शब्दों में, क्या इसका मतलब यह है कि देश की 125 करोड़ की आबादी में से 110 करोड़ लोग फटेहाल हैं? क्या इसका यह मतलब है कि समय-समय पर संशोधित की जाने वाली गरीबी रेखा बिल्कुल अविश्वसनीय और बेमानी है? 1अगर गांवों में रोजाना 96.2 रुपये और शहरों में 212.77 रुपये खर्च करने वाला व्यक्ति देश के पांच प्रतिशत शीर्ष लोगों में शामिल हो रहा है तो भारत की विकास गाथा में कुछ न कुछ तो खामी है। यह वादा और उत्साह कि हम विश्व के प्रमुख देशों में सबसे तेजी से बढ़ने वाली दूसरी अर्थव्यवस्था हैं, तो साफ तौर पर संपन्नता का महज भ्रम है। असलियत यह है कि मुट्ठीभर लोग और परिवार अकूत संपत्ति के मालिक बन बैठे हैं। जबरदस्त आय असमानता को देखते हुए भारत में औसत आय का कोई मतलब नहीं है। एनएसएसओ के खपत व्यय के आंकड़े केवल यही दिखाते हैं कि आय में असमानता किस कदर है। साल दर साल आय के असमान वितरण की खाई और चौड़ी होती जा रही है। इस दर से तो भारत अमेरिका को भी शर्मसार कर देगा, जहां 400 लोगों के पास आधी अमेरिकी आबादी के बराबर संपत्ति है। भारत में आर्थिक वृद्धि से मतलब अल्ट्रा हाई नेट-वर्थ इंडिविजुअल्स (एचएनआइएस) से है, जिनकी संख्या 2012-13 में एक लाख से अधिक हो गई है और आगामी पांच साल में तीन लाख से अधिक हो जाएगी। एचएनआइएस से आशय ऐसे व्यक्तियों से है जिन्होंने पिछले दस वर्षो में 25 करोड़ या इससे अधिक जमा कर लिए हैं।1मुट्ठीभर परिवारों में जितनी अधिक संपदा जमा होगी, औसत आय और बढ़ती संपन्नता के आकलन में उतनी ही वृद्धि होगी। बिना इस बात की परवाह किए कि गरीबों को अपने साथ होने वाला मजाक कितना भद्दा लगेगा, हवा में उत्साह है। मेरा मतलब हवा की तरंगों से है। पिछले कुछ दिनों से टीवी चैनलों पर बैठे एंकर और कांग्रेस नेता बराबर बखान कर रहे हैं कि उन्होंने चमत्कार कर दिखाया है। 2004-05 से 2011-12 के बीच के आठ वर्षो में गरीबी 15 प्रतिशत कम हो गई है।
कुछ ने तो यह कह कर असंवेदनशीलता की हदें पार कर दी कि एक और पांच रुपये में अच्छा-खासा भोजन मिल जाता है। एनएसएसओ के पुराने आंकड़े बताते हैं कि गरीबी रेखा के नीचे रहने वाली आबादी 2004-05 में 37 प्रतिशत से घटकर 2011-12 में 21.9 प्रतिशत रह गई। पिछले साल मार्च 2012 में योजना आयोग ने घोषणा की थी कि गरीबी की प्रतिशतता में 7.3 प्रतिशत की कमी आई। इसका मतलब है कि 2004-05 में 37.2 प्रतिशत से घटकर 2009-10 में यह 29.8 प्रतिशत रह गई। चमत्कारिक ढंग से संप्रग के कार्यकाल के आठ वर्षो में गरीबी में गिरावट 15 प्रतिशत दिखाई जा रही है। 1दिलचस्प बात यह है कि गरीबी में गिरावट की डींगे ऐसे समय मारी जा रही हैं, जब योजना आयोग भी नई गरीबी रेखा के बारे में सुनिश्चित नहीं है। वास्तव में, यह देखते हुए कि उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (सीपीआइ) के आधार पर मुद्रास्फीति कई सालों से दस प्रतिशत के आसपास बनी हुई है, गरीबी में कमी किसी चमत्कार से कम नहीं है। खाद्य सुरक्षा बिल के माध्यम से सरकार देश की 67 प्रतिशत आबादी को राहत देना चाहती है, अगर देश में केवल 22 प्रतिशत आबादी ही गरीब है तो मुङो इसमें कोई तुक नजर नहीं आता कि सरकार 67 प्रतिशत आबादी को सस्ती दरों पर अनाज उपलब्ध कराए।
देखते हैं कि गड़बड़ है कहां। भारत की गरीबी रेखा विश्व में सबसे तंग गरीबी रेखाओं में एक है। जैसा कि राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के सदस्य एनसी सक्सेना का कहना है-1973-74 में ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों के लिए गरीबी रेखा का निर्धारण क्रमश: 1.63 और 1.90 रुपये प्रतिदिन प्रति व्यक्ति किया गया था। तबसे इसमें कोई बदलाव नहीं किया गया है, बस इसे मुद्रास्फीति के अनुरूप समायोजित भर किया गया है। मैं भारत में दो रेखाओं के पक्ष में हूं। एक भुखमरी के लिए और दूसरी गरीबी के लिए। वर्तमान शहरी व ग्रामीण गरीबी रेखा यानी 33 व 27 रुपये को भूख रेखा घोषित कर दिया जाना चाहिए। अर्थशास्त्री अजरुनसेन गुप्ता ने कई साल पहले बताया था कि देश की 77 प्रतिशत आबादी 20 रुपये प्रतिदिन खर्च करने की स्थिति में नहीं है। गरीबी रेखा में देश के 77 प्रतिशत लोग आने चाहिए। अगर दक्षिण अफ्रीका में तीन रेखाएं हो सकती हैं- पहली खाद्य के लिए और दूसरी व तीसरी गरीबी के निर्धारण के लिए तो भारत में अधिक यथार्थवादी गरीबी आकलन क्यों संभव नहीं है? देश कब तक खंडन की मुद्रा अपनाता रहेगा।
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