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साहस, समझदारी व सूझबूझ से महामंदी तो टाली जा सकती है, लेकिन ऐतिहासिक विवशताओं का समाधान नहीं हो सकता। सीरिया और अमेरिकी मौद्रिक नीति में संभावित बदलावों ने ग्लोबल बाजारों को इस हकीकत का अहसास करा दिया है कि अरब देशों का तेल व अमेरिका का डॉलर मंदी से बड़ी चुनौतियां हैं और मध्य-पूर्व के सिरफिरे तानाशाह व दुनिया के शासकों की भू-राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं आर्थिक तर्को की परवाह नहीं करतीं। वित्तीय बाजारों को इस ऐतिहासिक बेबसी ने उस समय घेरा है जब मंदी से उबरने का निर्णायक जोर लगाया जा रहा है। सीरिया का संकट पेट्रो बाजार में फट रहा है, जिस ईंधन का फिलहाल कोई विकल्प उपलब्ध नहीं है। अमेरिकी मौद्रिक नीति में बदलाव वित्तीय बाजारों में धमाका करेगा, जिनकी किस्मत दुनिया की बुनियादी करेंसी यानी अमेरिकी डॉलर से बंधी है। विवशताओं की यह विपदा उभरते बाजारों पर सबसे ज्यादा भारी है, जिनके पास न तो तेल की महंगाई ङोलने की कुव्वत है और न ही पूंजी बाजारों से उड़ते डॉलरों को रोकने का बूता है। सस्ती अमेरिकी पूंजी की आपूर्ति में कमी और तेल की कीमतें मिलकर उत्तर-पूर्व के कुछ देशों में 1997 जैसे हालात पैदा कर सकती हैं।
भारत के लिए यह 1991 व 1997 की कॉकटेल होगी यानी तेल की महंगाई और कमजोर मुद्रा, दोनों एक साथ। अमेरिका टॉम हॉक्स मिसाइलों को दमिश्क में उतारने की योजना पर दुनिया को सहमत नहीं कर पाया। सेंट पीटर्सबर्ग के कांस्टेटाइन पैलेस की शिखर बैठक में रूस व अमेरिका के बीच जिस तरह पाले खिंचे वह ग्लोबल बाजारों के लिए डरावना है। 1983-84 में सीरियाई शासक असद से उलझकर पीछे हट चुका अमेरिका कुछ न कुछ जरूर करेगा अर्थात पेट्रो बाजार में आशंकाओ की लपटें उठती रहेंगी, क्योंकि कच्चा तेल एक भू-राजनीतिक कमोडिटी है। अलबत्ता ईंधन के मामले में अमेरिका व रूस की आत्मनिर्भरता शेष दुनिया से बेहतर है इसलिए सीरिया की लपट से महंगाई व मंदी की मार तीसरी दुनिया को ही अधिक झुलसाएगी। 11956 के स्वेज संकट, 1990 के खाड़ी युद्ध और 2003 के इराक युद्ध से गुजर चुकी दुनिया के पास फिर भी तेल के संकट का तजुर्बा है। ज्यादा बड़ी चुनौती तो डॉलर की है, जिसकी किल्लत अनदेखी है। पिछले एक दशक में अमेरिकी डॉलर पर दुनिया की निर्भरता कच्चे तेल से ज्यादा बढ़ गई है। विभिन्न देशों के पास करीब छह खरब डॉलर का विदेशी मुद्रा भंडार है, जिसका 62 फीसद हिस्सा अमेरिकी डॉलर में है।
इतना ही नहीं 2008 के बाद मंदी से उबरने के लिए विकसित देशों ने जो सस्ती पूंजी छोड़ी थी वह पिछले कुछ वर्षो में वित्तीय बाजारों की धुरी बन गई है। उभरते बाजारों के लिए विकसित देशों की मौद्रिक नीति में बदलाव का खौफ सीरिया के संकट से ज्यादा बड़ा है। भारत सहित पूर्वी एशिया के बाजारों से 1997 जैसा पूंजी पलायन शुरू होने का डर है, क्योंकि 2008 के बाद इन देशों के विदेशी मुद्रा भंडार में या तो निवेशकों के डॉलर आए हैं या फिर कंपनियों के विदेशी कर्ज के। इसलिए डॉलरों की वापसी के खतरे ने दुनिया के सबसे आकर्षक बाजारों को सबसे जोखिम भरे बाजारों में बदल दिया है। मेरिल लिंच के ताजा विश्लेषण के मुताबिक भारत, मलेशिया व सिंगापुर में 1997 जैसे मुद्रा संकट का खतरा सबसे ज्यादा हैं। थाईलैंड, चीन, हांगकांग व इंडोनेशिया इसके बाद आते हैं। कोरिया व ताइवान अपेक्षाकृत कम खतरे में हैं। भारत, मलेशिया व सिंगापुर की चुनौतियां बहुआयामी हैं। इनकी निजी कंपनियों ने बड़े पैमाने पर विदेशी कर्ज लिए हैं। मुंबई शेयर बाजार में सूचीबद्ध 100 बड़ी कंपनियों में 25 कंपनियों का हाल विदेशी कर्ज के मामले में कुछ ज्यादा ही बुरा है। भारत के कुल विदेशी कर्ज में छोटी अवधि के कर्ज 44 फीसद हैं, जो 2007 में केवल 16 फीसद थे। यही हाल देशी कर्ज का है। इस साल जून तक लगभग 4.5 खरब रुपये के कारपोरेट कर्जो का पुनर्गठन हो चुका है। इसके बावजूद शेयर बाजार में सूचीबद्ध 40 बैंकों के फंसे हुए कर्ज 1.8 खरब रुपये के रिकार्ड स्तर पर हैं। देशी व विदेशी कर्ज से कमजोर हुए वित्तीय तंत्र के बीच चालू खाते के घाटे, गिरती विकास दर व राजनीतिक असमंजस ने भारत को गहरे जोखिम में फंसा दिया है।1मंदी से उबर रही अमेरिकी व कुछ यूरोपीय अर्थव्यवस्थाओं को अब सस्ती पूंजी की पहले जितनी जरूरत नहीं है। अमेरिकी फेड रिजर्व 15 सितंबर को आपूर्ति में कमी का फैसला करेगा, जिससे अमेरिका में ब्याज दरें बढें़गी और ग्लोबल बाजारों में निवेश कम होगा। यही वजह है कि अपने बाजारों से डॉलर के पलायन से डरे ब्रिक देशों के मुखिया विकसित देशों की मौद्रिक नीतियों में बदलाव रोकने का एजेंडा लेकर जी-20 की बैठक में पहुंचे थे। दुनिया का हर देश अपनी आर्थिक जरूरत के हिसाब से मौद्रिक नीति तय करता है इसलिए सेंट पीटर्सबर्ग की घोषणा में उभरते बाजारों को केवल जुबानी आश्वासन ही मिला है। डॉलरों की कमी का तात्कालिक इलाज सबको अपने तरीके से करना होगा जैसे कि भारत जापान को रुपया देकर डॉलर लेगा और संकट से बचने की कोशिश करेगा।
ग्रीस व स्पेन को डूबते- डूबते उबारने वाली और जापान को दशकीय मंदी की जकड़ से आजादी दिलाने वाली ग्लोबल जिजीविषा को सलाम, लेकिन मध्य पूर्व के तेल व अमेरिकी डॉलर पर निर्भरता पूरी दुनिया की ऐतिहासिक विवशता है, जिन्हें ग्लोबल राजनीतिक नेतृत्व से दूर करने के लिए अप्रत्याशित दूरदर्शिता की दरकार है। इनके समाधान के बिना दुनिया के बाजार स्वस्थ व स्वतंत्र नहीं हो सकते। डॉलरों की ताजा ग्लोबल किल्लत बुरी नहीं है, क्योंकि अब इसके बाद दुनिया को अमेरिकी डॉलर के मजबूत विकल्प की तलाश पर गंभीर होना होगा। मध्य पूर्व से बाहर तेल व गैस के नए स्नेतों की कामयाब खोज हुई है, जो अगले एक दशक में ग्लोबल पेट्रो बाजार पर अरब मुल्कों का दबदबा तोड़ देगी।
इस आलेख के लेखक अंशुमान तिवारी हैं
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