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अनर्थ से फौरी बचाव

जागरण मेहमान कोना
जागरण मेहमान कोना
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संसद का सत्र आरंभ होते ही नई दिल्ली का माहौल काफी सक्रिय और जोशपूर्ण हो जाता है। बावजूद इसके कि आजकल अधिकतर गतिविधियां संसद में नहीं, बल्कि संसद के बाहर पूरी की जाती हैं। इस बार के मानसून सत्र का अंतिम सप्ताह दो कारणों से महत्वपूर्ण था। पहला, कई वर्षो के गतिरोध के बाद भूमि अधिग्रहण एवं खाद्य सुरक्षा जैसे महत्वपूर्ण विधेयक पारित हुए। दूसरा, वह मामले अधिक स्पष्ट दिखाई दिए जहां राजनीतिक दल आसानी से समझौता कायम कर सकते हैं। यहां मैं सूचना का अधिकार, संशोधन विधेयक, 2013 की बात कर रहा हूं। ज्यादातर लोगों का मानना है कि सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 एक ऐसा कारगर हथियार है जिसने सरकार और नौकरशाही को जवाबदेह और पारदर्शी बनाने में योगदान दिया है। इस अधिनियम ने आम नागरिकों को अधिकार प्रदान कर हमारे लोकतंत्र को अधिक मजबूत किया है। यही कारण है कि जब सरकार ने एक ऐसे विधेयक को संसद में पेश किया जिसका प्रमुख उद्देश्य सूचना आयोग यानी सीआइसी के आदेश को निरस्त करना और राजनीतिक दलों को सूचना के अधिकार के दायरे से बाहर रखना था तो सरकार को तमाम नागरिक समूहों और कार्यकर्ताओं के विरोध का सामना करना पड़ा।

आसाराम ने आस्था का गला घोंटा


इस व्यवस्था का अंग होने के बावजूद मुङो खुद सरकार की इस हरकत पर बेहद निराशा हुई। अपने हित की रक्षा के लिए कुछ राजनीतिक दल इतनी आसानी से एकजुट हो सकते हैं, मुङो इस बात पर बहुत आश्चर्य हुआ। चाहे राजनीतिक दलों को अपने तर्क कितने ही सही क्यों न लगें, संसद द्वारा पारित किए जाने से पहले कम से कम इस महत्वपूर्ण विधेयक पर विस्तृत चर्चा और विचार-विमर्श तो होना ही चाहिए था। हालांकि दूसरे कई लोकतंत्रों में भी राजनीतिक दल आरटीआइ के दायरे में नहीं आते और उन देशों के रिपोर्टिग मानकों और लेखा परीक्षा की आवश्यकताओं के कारण वहां चुनावी खर्चे के मामले में भारत से कहीं अधिक पारदर्शिता है। इस सबको लेकर मैंने सीधे लोकसभा अध्यक्ष को पत्र लिखने का फैसला किया। चिट्ठी में मैंने उनसे आग्रह किया कि वह इस विधेयक को शोर-शराबे और हड़बड़ी के बीच पारित न होने दें। साथ ही मैंने विधेयक को स्थायी समिति के पास भेजने का भी अनुरोध किया, ताकि समिति आम जनता के विचार आमंत्रित कर विधेयक का विश्लेषण कर सके। साथ ही मैंने इस मुद्दे पर समर्थन का निर्माण करने के लिए अन्य सांसदों और फेसबुक-ट्विटर आदि के माध्यम से लोगों से बात करनी आरंभ की। ऐसा अक्सर माना जाता है कि हमारी जनता राजनेताओं और राजनीतिक वर्ग से दूर रहना पसंद करती है और उनके साथ जुड़ना नहीं चाहती। इसीलिए मुङो आश्चर्य हुआ जब देश भर से विभिन्न तबके के लोगों और नागरिक समूहों और यहां तक कि विदेश में बसे भारतीयों से भी सैकड़ों अनुरोध पत्र ई-मेल से प्राप्त हुए। इन पत्रों में कानून में संशोधन के प्रति विरोध और मेरे विचारों का समर्थन था। इस विधेयक को रोकने के लिए सांसदों को आश्वस्त करने की बात कही गई थी।


ऑनलाइन याचिका आरंभ करने के अलावा, नागरिक संगठनों ने आरटीआइ काल-ए-थॉन नामक नागरिक-जनप्रतिनिधि भागीदारी का एक रोचक प्रयास भी आरंभ किया। इसके तहत स्वयंसेवियों ने 350 से अधिक सांसदों से फोन पर बातचीत की और आरटीआइ संशोधन के खिलाफ वोट डालने का आग्रह किया। सरकार के ऊपर इस विधेयक को पारित करने का बहुत दबाव था। उसे डर था कि सीआइसी के आदेश लागू होने पर राजनीतिक दलों के पास आरटीआइ आवेदन पत्रों का ढेर लग जाएगा, लेकिन एक सप्ताह में ही, जनता के दबाव ने सारी बाजी पलट दी। वह सरकार जिसे पहले राजनीतिक दलों से सर्वसम्मति मिलने का पूरा भरोसा था, अब दूसरे दलों के साथ-साथ अपने खुद के कुछ सदस्यों, खासकर शहरी सांसदों से समर्थन प्राप्त करने के प्रति अनिश्चितता दिखाई दे रही थी। जनता की राय को अनदेखा करने की वजह से कई शहरों में मतदाता अपने सांसदों की आलोचना कर रहे थे।1बावजूद इसके कुछ दल अभी भी सरकार का समर्थन कर रहे थे इसलिए सरकार ने अड़ियल रुख बनाए रखा। बुधवार की शाम को लोकसभा में एक चौंका देने वाली गतिविधि ने सरकार की हताशा को नि:संदेह सिद्ध कर दिया। संसद की पद्धति की अवमानना करते हुए सरकार ने अचानक आरटीआइ विधेयक पर चर्चा आरंभ कर दी, जबकि उस समय संसद में उत्तराखंड त्रसदी पर विचार-विमर्श हो रहा था। ऐसा लगता है यह पूर्णतया अवसरवादी कोशिश थी। भाग्यवश कुछ सदस्यों ने सदन में इस पर गंभीर आपत्ति जताई और सरकार को मजबूर होकर चर्चा को अगले दिन तक स्थगित करना पड़ा।

नए तेवर में सांप्रदायिकता


सरकार को तो सपने में भी अंदाजा नहीं था कि अगले चौबीस घंटे में दबाव कई गुना बढ़ जाएगा। किसी भी तरह विधेयक में संशोधन पारित करवाने की इस रणनीति ने नागरिक समूहों और सांसदों को दोगुनी तेजी से राजनीतिक दलों को घेरने पर मजबूर कर दिया। इसी दौरान मैंने लोकसभा अध्यक्ष को एक और पत्र लिखकर डिवीजन की मांग की यानी आरटीआइ पर सांसदों की वोटिंग का लिखित प्रमाण मांगा ताकि नागरिकों को पता चल सके कि उनके द्वारा चयनित सांसदों ने इस मुद्दे पर किसका साथ दिया। मतदान वाले दिन सरकार का सारा गणित फेल हो गया। जनता के दबाव की वजह से अंत में सरकार को विधेयक को स्थायी समिति को भेजना ही पड़ा। यह एक उल्लेखनीय घटना है। अब न केवल राजनीतिक दलों के प्रतिनिधि, बल्कि आरटीआइ एक्टिविस्ट, नागरिक मंच और आम जनता सब इस सलाह-मशविरा में भागीदार बन सकेंगे। मेरा मानना है कि सरकारी नीति को प्रभावित करने का यह एक नया और असरदार तरीका है। आरटीआइ के संदर्भ में इस नागरिक भागीदारी ने हमारी विधायी प्रक्रिया का रुख ही बदल दिया। एक जंग तो हमने जीत ली है, लेकिन युद्ध जीतना अभी बाकी है। आगे सफलता के लिए नागरिक भागीदारी और प्रयास फिर से जरूरी होंगे।


इस आलेख के लेखक बैजयंत जय पांडा हैं

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