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अनिश्चितकाल के लिए स्थगित हुए संसद के मानसून सत्र पर पूरे देश की निगाहें रहीं। इस सत्र को लेकर पहले से ही सवाल उठने शुरू हो चुके थे। अमूमन जुलाई में शुरू होने वाले सत्र को अगस्त में प्रारंभ कर केवल 16 बैठकें निर्धारित की गईं, जो पहले सत्र को छोड़कर रिकार्ड सबसे कम थीं। हालांकि बाद में सत्र की अवधि को करीब एक सप्ताह के लिए बढ़ाया गया। वैसे इससे पिछले सत्र में मंत्रियों के इस्तीफे की मांग समेत ढेरों मुद्दों के चलते जबरदस्त हंगामा दिखा था। ऐसे में इस सत्र के भी हंगामेदार रहने की उम्मीदें ज्यादा थीं। शुरुआत भी कुछ ऐसी ही दिखी। तेलंगाना का विरोध करने वाले सांसदों ने शुरुआती दो सप्ताह जबरदस्त हंगामा किया। शुरुआती 10 बैठकों का करीब 88 फीसदी समय व्यवधान की भेंट चढ़ चुका था, जो पिछले दोनों मानसून सत्रों के मुकाबले अधिक था। यह विरोध तब हो रहा था जब तेलंगाना का मामला संसद तक आया ही नहीं था।
सांसदों ने कभी हंटर चलाए तो कभी कृष्णरूप धरा। हद तो तब हो गई जब लोकसभा में सांसदों के आपस में गाली-गलौच करने की खबर आई। इसके साथ ही अन्य मामलों में भी ‘गंभीर सांसद’ आपस में उलझते दिखे। नतीजतन राज्यसभा में सभापति को सख्त टिप्पणी करनी पड़ी और लोकसभा में दो बार कांग्रेस और तेदेपा के सांसदों को निलंबित किया गया। हालांकि तब तक काफी देर हो चुकी थी। अकेले लोकसभा के करीब 50 घंटे बर्बाद हो चुके थे। 1दोनों सत्रों के बीच में किसी नए बड़े घोटाले का सामने न आना सरकार के लिए राहत की बात जरूर थी, लेकिन राबर्ट वाड्रा संपति विवाद फिर सुर्खियों में था। उधर, कोयला ब्लाक आवंटन की फाइलें गुम होने को लेकर सरकार एक बार फिर मुश्किल में दिखी। कोयला मंत्री से लेकर प्रधानमंत्री तक को सफाई देनी पड़ी। इस मुद्दे पर प्रधानमंत्री राज्यसभा में बदले अंदाज में नजर आए और उल्टे विपक्ष पर ही सवाल खड़े किए। मौजूदा आर्थिक हालात के लिए व्यवधान को जिम्मेदार बताया। इसके अलावा किश्तवाड़ की घटना एवं सोलर घोटाला समेत कई और मामलों पर भी व्यवधान दिखा। राज्यसभा में हंगामा करने वाले नेताओं की सूची पर बवाल मचा। उधर, पाकिस्तान और चीन से जुड़े मुद्दों पर भी सरकार को घेरा गया।
उत्तराखंड त्रसदी, देश की कमजोर अर्थव्यवस्था और किसानों के हालात जैसे मुद्दों ने भी असर छोड़ा। फिर भी तेलगांना को लेकर कांग्रेस-तेदेपा के सांसदों के हंगामे का विपक्ष के मुद्दों की तुलना में ज्यादा असर दिखा। 1इन सबके बीच, ‘गेम चेंजर’ माने जाने वाले खाद्य सुरक्षा विधेयक पर मुहर लगी। अस्वस्थ होने के बावजूद सोनिया गांधी ने स्वयं चर्चा में शिरकत कर सरकार की पीठ थपथपाई। देखना होगा कि 5 किलो प्रति माह के हिसाब से हरेक को मिलने वाला प्रति खुराक बमुश्किल 50 ग्राम अनाज कैसे कुपोषण खत्म करेगा? इसी तरह भूमि अधिग्रहण विधेयक भी संसद में पारित हुआ, जिसमें किसानों की सहमति समेत अधिक मुआवजे का प्रावधान किया गया है। यकीनन राहुल गांधी का वायदा पूरा हो चुका है। यह बात अलग है कि अभी भी अलग-अलग मंत्रलयों के भूमि अधिग्रहण से जुड़े दर्जनभर कानून इसके दायरे से बाहर हैं। इनके अलावा आरटीआइ के दायरे से राजनीतिक दलों को बाहर रखने वाला विधेयक भले ही स्थायी समिति को भेज दिया गया हो, लेकिन जेल से चुनाव ना लड़ने संबंधी सर्वोच्च अदालत के फैसले को पलटने वाले विधेयक पर संसद की मंजूरी मिल ही गई। माननीयों ने उम्मीद के मुताबिक स्वयं को देश में ‘सबसे ज्यादा जबावदेह’ बताते हुए उल्टे न्यायपालिका पर ही सवाल खड़े किए। वैसे इन विधेयकों पर सत्र प्रारंभ होने से पहले ही सैद्धांतिक सहमति बन चुकी थी। हो भी क्यों ना? मौजूदा लोकसभा के 162 सांसदों पर आपराधिक मामले जो चल रहे हैं।
वैसे तो सत्र से पहले 116 विधेयक लंबित थे, लेकिन सरकार का मकसद इनमें से करीब 40 विधेयकों को पारित कराने का था। हालांकि दोनों सदनों से केवल 12 विधेयक ही पारित हो सके। यह तब जबकि आखिरी दिन 6 विधेयकों को मंजूरी मिली। चर्चा का समय और स्तर क्या रहा होगा, समझा जा सकता है। वैसे अब लंबित विधेयकों की संख्या बढ़कर 123 हो चुकी है। इधर, सांसदों के लिए महत्वपूर्ण माने जाने वाले प्रश्नकाल की स्थिति तो और ज्यादा चिंताजनक रही। 300 सवालों में से लोकसभा में केवल 11, जबकि राज्यसभा में केवल 28 सवालों के ही मौखिक जबाव दिए जा सके। संसदीय व्यवस्था के मौजूदा हालात बताने के लिए यह आंकड़ा पर्याप्त है। कुल मिलाकर संसद के दोनों सदनों में करीब 171 घंटे ही काम हो सका। 1दुर्भाग्यवश मौजूदा लोकसभा में सर्वाधिक शोरशराबे का रिकार्ड बन चुका है और इसके चलते यह माना जाने लगा है कि संसद काम का स्थान नहीं रह गई है। आम जनता के बीच संसद को लेकर बनी यह धारणा अनायास नहीं है। आम चुनाव नजदीक आते-आते संसद में अधिक व्यवधान तय माना जा रहा है। ऐसे में संसदीय व्यवस्था में सुधार की आशा करना अब बेमानी सा लगता है। हालांकि उम्मीद के अलावा आम आदमी के पास कोई विकल्प भी तो नहीं। वैसे सोचना जरूर होगा कि केवल 13 फीसद सवालों के जवाब, मात्र 12 विधेयकों पर मुहर और करीब 100 घंटे का व्यवधान! क्या संसद सत्र के यही मायने हैं? क्या इसीलिए जनप्रतिनिधियों को चुनकर संसद भेजा जाता है? जाहिर है कानून बनाने वालों की भी ‘वास्तविक जवाबदेही’ तय होनी चाहिए। यह असंभव भले लगे, किंतु वक्त की जरूरत अवश्य है।
इस आलेख के लेखक अनुराग दीक्षित हैं
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